पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Paksha to Pitara  )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Paksha - Panchami  ( words like Paksha / side, Pakshee / Pakshi / bird, Panchachuudaa, Panchajana, Panchanada, Panchamee / Panchami / 5th day etc. )

Panchamudraa - Patanga ( Pancharaatra, Panchashikha, Panchaagni, Panchaala, Patanga etc. )

Patanjali - Pada ( Patanjali, Pataakaa / flag, Pati / husband, Pativrataa / chaste woman, Patnee / Patni / wife, Patnivrataa / chaste man, Patra / leaf, Pada / level etc.)

Padma - Padmabhuu (  Padma / lotus, Padmanaabha etc.)

Padmamaalini - Pannaga ( Padmaraaga, Padmaa, Padmaavati, Padminee / Padmini, Panasa etc. )

Pannama - Parashunaabha  ( Pampaa, Payah / juice, Para, Paramaartha, Parameshthi, Parashu etc. )

Parashuraama - Paraashara( Parashuraama, Paraa / higher, Paraavasu, Paraashara etc)

Parikampa - Parnaashaa  ( Parigha, Parimala, Parivaha, Pareekshita / Parikshita, Parjanya, Parna / leaf, Parnaashaa etc.)

Parnini - Pallava (  Parva / junctions, Parvata / mountain, Palaasha etc.)

Palli - Pashchima (Pavana / air, Pavamaana, Pavitra / pious, Pashu / animal, Pashupati, Pashupaala etc.)

Pahlava - Paatha (Pahlava, Paaka, Paakashaasana, Paakhanda, Paanchajanya, Paanchaala, Paatala, Paataliputra, Paatha etc.)

Paani - Paatra  (Paani / hand, Paanini, Paandava, Paandu, Pandura, Paandya, Paataala, Paataalaketu, Paatra / vessel etc. )

Paada - Paapa (Paada / foot / step, Paadukaa / sandals, Paapa / sin etc. )

 Paayasa - Paarvati ( Paara, Paarada / mercury, Paaramitaa, Paaraavata, Paarijaata, Paariyaatra, Paarvati / Parvati etc.)

Paarshva - Paasha (  Paarshnigraha, Paalaka, Paavaka / fire, Paasha / trap etc.)

Paashupata - Pichindila ( Paashupata, Paashaana / stone, Pinga, Pingala, Pingalaa, Pingaaksha etc.)

Pichu - Pitara ( Pinda, Pindaaraka, Pitara / manes etc. )

 

 

पशु

बेंगलूरुमहानगरस्य जिगनी उपनगरे पशुकामनवरात्रसंज्ञकस्य सोमयागस्य अनुष्ठानं 3-5-2022 तः 16-5-2022 यावत् भविष्यति। अस्मिन् संदर्भे पशुकामनातः किं उद्देश्यं अभिप्रेतमस्ति, अयं विचारणीयः। वैदिकवाङ्मये ये पशवः सन्ति, तेषां द्विवर्गौ स्तः। एकः ग्राम्याः पशवः, अन्यः आरण्यकाः। सिंह, व्याघ्र, महिषादयः ये पशवः सन्ति, ते मानवचैतन्ये काम, क्रोध, क्षुधादि आधारभूताः आवेगाः सन्ति। ये ग्राम्याः पशवः सन्ति, तेषां वैशिष्ट्यं पयःजननं अस्ति। कथनमस्ति यत् पयसः सृष्टिः ग्राम्यपशुषु एव भवति, नान्येषु। अथ, पशुकामनवरात्रस्य किमुद्देश्यं भवितुं शक्यते। अनुमानमस्ति यत् चैतन्ये यत्रयत्र आरण्यकपशूनां साम्राज्यमस्ति, तत्रतत्र तस्य प्रतिस्थापनं ग्राम्येभिः पशुभिः करणं एकमुद्देश्यमस्ति। कथनमस्ति यत् ये उपस्थोपरि लोमानि सन्ति, ते वृकस्य लोमरूपाणि सन्ति, ये श्मश्रुरूपाः लोमानि सन्ति, ते व्याघ्रस्य लोमाः सन्ति। ये शिरसोपरि लोमाः सन्ति, ते श्रियै रूपाः सन्ति। आधुनिकविज्ञानानुसारेण, उपस्थ एवं श्मश्रु उपरि ये लोमाः सन्ति, तेषां जननं कामस्य जनने ये  रसायनाः क्रियाशीलाः सन्ति, तेभ्यः भवति। एवंप्रकारेण, वैदिकवाङ्मयानुसारेण, चैतन्ये बहवः स्थलाः सन्ति यत्र आरण्यकपशूनां आवेगानां प्रतिस्थापनं ग्राम्येभिः पशुभिः कर्तुं शक्यन्ते।

सौत्रामणीसंज्ञके यागे एके पार्श्वे अध्वर्युसंज्ञकः ऋत्विक् यजमानेन साकं पयसा यागं करोति, अन्ये पार्श्वे प्रतिप्रस्थाता ऋत्विक् यजमान-पत्नी सह सुरया यज्ञं संपादयति।  सुरायज्ञः आरण्यकानां पशूनां वैशिष्ट्यं अस्ति। अयं क्षुधातृप्तिकारकः अस्ति। प्रकृत्यां न कोपि जीवः क्षुधातः, सुरायज्ञतः मुक्तः अस्ति। अन्ये पार्श्वे, पयःयज्ञस्य उद्देश्यं अन्नाद्यस्य, अन्नेषु श्रेष्ठतमानां (दधि, घृत, मधु) पदार्थानां जननमस्ति। शांखायनब्राह्मणे ११.६ कथनमस्ति यत् यज्ञे यः न्यूनमस्ति, तत् अन्नाद्यमस्ति। यः अतिरिक्तं भवति, तत् प्रजात्यै भवति - 'यद्वै यज्ञस्य संपन्नं तत्स्वर्ग्यं यन्न्यूनं तदन्नाद्यं यदतिरिक्तं तत्प्रजात्यै(शतपथ ब्राह्मणस्य  ११.४.४.८ कथनमस्ति यत् - यद्वै यज्ञस्य न्यूनं प्रजननमस्य तदथ यदतिरिक्तं पशव्यमस्य तदथ यत्संकसुकं श्रिया अस्य तत्)। शतपथब्राह्मणे ११.२.३.९ कथनमस्ति यत् यज्ञे/मन्त्रे यत्किंचित् न्यूनमस्ति, तस्य पूर्तिः उप इति प्रत्ययेन भवति। यत्किंचित् अतिरिक्तं भवति, तस्य शमनं नमः प्रत्ययेन भवति (द्र. उप उपरि टिप्पणी )। लोकव्यवहारे पयसाभावः कति सीमातः अस्ति, अयं सर्वज्ञातमस्ति। सोमयागकाले दीक्षित यजमानः पयोव्रती एव भवति। अत्र पयः शब्दः संकीर्णार्थे नास्ति, अन्नाद्य अर्थे अस्ति (पयः उपरि टिप्पणी पठनीया अस्ति)।

पशूनां पयसि ये परिवर्तनाः संभवन्ति, तेषां प्रेरकः आदित्यः भवति, अयं कथनं उपलभ्यते। कर्मकाण्डे अयमादित्यः यूपरूपेण भवितुं शक्यते। ऐतरेयब्राह्मणे उल्लेखः अस्ति यत् अन्नाद्यस्य प्राप्त्यर्थं बिल्वस्य यूपः अपेक्षितमस्ति(बैल्वं यूपं कुर्वीतान्नाद्यकामः पुष्टिकामः - ऐब्रा. २.१)।

टिप्पणी : वैदिक कर्मकाण्ड में सार्वत्रिक रूप से सोमयाग में पशु के आलभन के निर्देश आते हैं । तैत्तिरीय आरण्यक १.११.४ का कथन है कि पशवो मम भूतानि, अर्थात् मेरे भूत ही मेरे पशु हैं । भूत का एक अर्थ तो पांच महाभूतों के अनुसार जड पदार्थ हो सकता है । भूत का दूसरा अर्थ कार्य - कारण सिद्धान्त के अनुसार हमारे जडीभूत कर्मफल हो सकते हैं । यह कर्मफल सोई हुई अवस्था में, निष्क्रिय अवस्था में पडे हैं । इन्हें चेतन बनाने की आवश्यकता है । चेतन बनने पर यह हमारे लिए भूत और भविष्य का ज्ञान प्रदान करेंगे, हमें प्रेरणा प्रदान करने वाले बनेंगे (देवीं वाचमजनयन्त देवा: । तां विश्वरूपा: पशवो वदन्ति । सा नो - - - -" - ऋग्वेद ८.१००.११, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.६.१०) । वैदिक साहित्य में पशु से क्या तात्पर्य हो सकता है, इसकी एक झलक शतपथ ब्राह्मण ६.२.१.२ में मिलती है । इस आख्यान के अनुसार कुमार अग्नि ५ पशुओं ( पुरुष, अश्व, गौ, अव और अज) के रूप में छिप गया । प्रजापति ने इन्हें इन पशुओं में देख लिया । अतः इनका नाम पशु ( पश धातु - पश्यति के अर्थ में ) हुआ । जैसा कि सर्वविदित है, अग्नि की प्रवृत्ति ऊर्ध्वमुखी होती है, जबकि पशुओं की तिर्यक् गति होती है । अतः जब अग्नि के छिपने की बात होती है तो इसका तात्पर्य होगा कि ऊर्ध्वमुखी चेतना तिर्यक् चेतना में रूपान्तरित होकर रह गई है । अब साधना में दो मार्ग होने चाहिएं - एक तो यह कि पशुओं की उत्पत्ति को बिल्कुल समाप्त कर दिया जाए, पूरी तरह ऊर्ध्वमुखी चेतना बना दी जाए । दूसरा यह कि साधना में पशुओं का भी सम्यक् उपयोग किया जाए । वैदिक साहित्य में दोनों प्रकार की साधनाओं के उल्लेख हैं । पुरुष के लिए कहा गया है कि वह द्विपाद है । दो पाद ऊर्ध्व और अधो दिशाओं के रूप में हैं । पशु के लिए कहा गया है कि वह चतुष्पाद है । चार दिशाएं ही उसके चार पाद हैं( तैत्तिरीय संहिता ५.१.१.१) । द्विपाद पुरुष चतुष्पाद पशु का नियन्त्रक बनता है, पशुपति बनता है । एक स्थान पर( ) उल्लेख आता है कि इस देह में वीर्य अग्नि का रूप है, प्राण या हृदय वायु का रूप है और चक्षु सूर्य का रूप है । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा में अग्नि के छिपने की बात होती है तो उससे तात्पर्य यह हो सकता है कि अन्न से वीर्य के निर्माण में कहीं रुकावट आ रही है । अथवा अन्न का वह रस ऊर्ध्वगामी वीर्य बनने के बदले हमारी पाशविक प्रवृत्तियों में रूपान्तरित हो रहा है । यदि ऐसा हो रहा है तो फिर प्रश्न उठता है कि निर्मित होने वाली पाशविक प्रवृत्ति का रूप कौन सा होगा ? वह गाय की तरह होगी, या बकरी की तरह या सिंह की तरह । वैदिक साहित्य में पशुओं का वर्गीकरण तीन भागों में किया गया है - वायव्य, आरण्यक और ग्राम्य ( पशून् ताँश्चक्रे वायव्यान् आरण्यान् ग्राम्याश्च ये - ऋग्वेद १०.९०.८ ) । इनमें से वैदिक साहित्य और पौराणिक साहित्य में मुख्य रूप से आरण्यक और ग्राम्य पशुओं का ही विस्तार मिलता है, वायव्य पशु के बारे में बहुत कम विस्तार मिलता है । तैत्तिरीय आरण्यक ३.११.११ में ग्राम्य पशुओं के देवता के रूप में अग्नि और आरण्यकों के देवता के रूप में वायु का उल्लेख आया है । तैत्तिरीय संहिता ५.५.१.३ में पशु को वायव्य कहा गया है और वायु को पशुओं का प्रिय धाम भी कहा गया है(पं. मोतीलाल शास्त्री का कथन है कि गौ पशु में वायु तत्त्व अधिक होता है, अतः उसका वत्स जन्म लेते ही उछलने - कूदने लगता है ) । वैदिक साहित्य का कथन है कि यदि आरण्यक पशु का जन्म हुआ है तो उसको नियन्त्रित नहीं किया जा सकता । ग्राम्य पशु को नियन्त्रित किया जा सकता है । लेकिन साथ ही ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि ग्राम्य पशु आरण्यक पशु का नियन्त्रक है, वैसे ही जैसे पुरुष पशु का नियन्त्रक है ।

पशु व सामगान की भक्तियां : तैत्तिरीय संहिता ७.१.१.४ में उल्लेख आता है कि प्रजापति के मुख से अजा उत्पन्न हुई, उर से अवि, उदर से गौ तथा पाद प्रदेश से अश्व । अज गायत्र है । जैमिनीय ब्राह्मण १.६८ में यह उल्लेख थोडे भिन्न रूप में मिलता है । वहां उर से अश्व की उत्पत्ति और पाद प्रदेश से अवि की उत्पत्ति का उल्लेख है । प्रश्न उठता है कि मुख से अजा उत्पन्न होने का क्या निहितार्थ हो सकता है ? जैसा कि गौ शब्द की टिप्पणी में छान्दोग्य उपनिषद २.१-२. १८के आधार पर कहा गया है, अज अवस्था सूर्य के उदित होने से पहले की, तप की अवस्था हो सकती है । अवि अवस्था सूर्य उदय के समय की अवस्था है, गौ अवस्था मध्याह्न काल की अवस्था है जब पृथिवी सूर्य की ऊर्जा को अधिकतम रूप में ग्रहण करने में सक्षम होती है । अपराह्न काल की अवस्था अश्व की और सूर्यास्त की अवस्था पुरुष की अवस्था होती है । सामों की भक्तियों के संदर्भ में अज को हिंकार, अवि को प्रस्ताव, गौ को उद्गीथ, अश्व को प्रतिहार और पुरुष को निधन कह सकते हैं( रैवत पृष्ठ्य साम के संदर्भ में छान्दोग्य उपनिषद २.१८ ) । जब अजा की उत्पत्ति प्रजापति के मुख से कही जाती है तो इसका निहितार्थ यह हो सकता है कि अज अवस्था अपने तप द्वारा शरीर के अविकसित अङ्गों को पकाने की अवस्था है । मुख में तो चक्षु, श्रोत्र आदि प्राण प्रत्यक्ष रूप में दिखाई पडते हैं लेकिन वैदिक साहित्य का कथन है कि ऐसा नहीं है कि शरीर के निचले भाग में चक्षु आदि का विकास न हुआ हो । केवल इतना ही है कि पादों से आरम्भ करके शिर तक इनके विकास, इनकी अभिव्यक्ति में निरन्तर वृद्धि होती जाती है और शिर में आने पर यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगते हैं । अन्यथा उर में स्तन भी चक्षु स्थानीय माने जाते हैं । पादों में घुटने चक्षु स्थानीय माने जाते हैं । एडियों के टखने चक्षु स्थानीय माने जाते हैं । अतः अज अवस्था का कार्य इन ज्ञानेन्द्रियों को निरन्तर पकाना हो सकता है । इसी प्रकार गौ को उदर स्थानीय कहा गया है । उदर बाहर से ग्रहण किए भोजन से ऊर्जा संचित करने का काम करता है । यही स्थिति बृहत् रूप में गौ के बारे में भी समझी जा सकती है । गौ स्थिति ब्रह्माण्ड से ऊर्जा को ग्रहण करती है । अश्व को प्रतिहर्त्ता के समकक्ष, प्रतिहरण करने वाला कहा जाता है । प्रतिहरण से तात्पर्य है जैसे गर्भ माता के शरीर से ऊर्जा का, पयः का प्रतिहरण करता रहता है । सामों की भक्तियों को समझने का एक और मार्ग आधुनिक विज्ञान के माध्यम से विकसित हुआ है । श्री जे.ए.गोवान ने अपनी वेबसाईटों में यह स्पष्ट किया है कि जड पदार्थों के सूक्ष्म कणों इलेक्ट्रान आदि पर जो आवेश विद्यमान है, वह सूर्य द्वारा प्रदत्त उस सममिति का शेष भाग है जो सृष्टि के आरंभ के समय जड पदार्थ में अक्षुण्ण रह गया है । यह सर्वविदित है कि जड पदार्थ में सममिति नहीं होती । ऊर्जा सममित होती है । विद्युत आवेश सममित होता है । अतः जड पदार्थ पर जो विद्युत आवेश विद्यमान है, वह जड पदार्थ को सममिति प्रदान कर रहा है । जब इस तथ्य को सामवेद की भक्तियों पर लागू किया जाता है तो प्रस्ताव भक्ति को वैदिक साहित्य में कामना का आरंभ कहा गया है । कामना के आरंभ से तात्पर्य असममिति के उत्पन्न होने से लिया जा सकता है । फिर प्रतिहार द्वारा, ऊर्जा के प्रतिहरण द्वारा इस असममिति को कम करने का प्रयास किया जाता है । निधन नामक भक्ति पर आकर पूर्ण सममित अवस्था प्राप्त होती है । आरंभिक भक्ति हिंकार को पृथिवी खनन के तुल्य कहा गया है ।

     यह उल्लेखनीय है कि तैत्तिरीय संहिता ५.२.६.३ में प्राणों को पशु कहा गया है । सात शीर्ष प्राण होते हैं( चक्षु, श्रोत्र, नासिका आदि) । अतः प्राणों द्वारा ही पशुओं की प्राप्ति की जाती है ।

     यह अन्वेषणीय है कि वैदिक साहित्य में सूर्य के क्रमिक उदय से क्या तात्पर्य है? क्या सूर्य के उदय को ज्ञान के सूर्य का उदय कहा जा सकता है ? अथवा यह जड पदार्थ में सममिति में वृद्धि की क्रमिक अवस्थाएं हो सकती हैं ।

शतपथ ब्राह्मण ४.५.५.२ में अजा आदि पशुओं के लिए पात्रों का निर्धारण किया गया है । अजा उपांशु पात्र के अनुदिश उत्पन्न होती हैं, अवि अन्तर्याम पात्र के, गौ आग्रयण, उक्थ्य व आदित्य पात्रों के, अश्व आदि एकशफ पशु ऋतु पात्र के और मनुष्य शुक्र पात्र के अनुदिश उत्पन्न होते हैं । अजा के उपांशु पात्र से सम्बन्ध को इस प्रकार उचित ठहराया गया है कि यज्ञ में प्राण उपांशु होते हैं( शतपथ ब्राह्मण ४.१.१.१?), बिना शरीर के, तिर: प्रकार के होते हैं( ऐतरेय आरण्यक २.३.६) । अतः इन पात्रों को उपांशु या चुपचाप रहकर ग्रहण किया जाता है । इस कथन को अजा के इस गुण के आधार पर समझा जा सकता है कि अजा के तप से शरीर के अविकसित अङ्गों का, ज्ञानेन्द्रियों का क्रमशः विकास होता है । मुख तक विकास होने पर ही वह व्यक्त हो पाते हैं । कहा गया है कि अजा की प्रवृति ऊपर की ओर मुख करके गमन करने की होती है जबकि अवि की नीचे की ओर, भूमि का खनन करते हुए चलने जैसी । अवि के साथ अन्तर्याम पात्र सम्बद्ध करने का न्याय यह है कि उदान अन्तरात्मा है जिसके द्वारा यह प्रजाएं नियन्त्रित होती हैं, यमित होती हैं । अतः इस पात्र का नाम अन्तर्याम है ( शतपथ ब्राह्मण ४.१.२.२) । यह अवि के नीचा मुख करके चलने की व्याख्या भी हो सकती है क्योंकि उदान अधोमुखी होने पर ही प्रजाओं का नियन्त्रण हो पाता है । मनुष्य के शुक्र पात्र के संदर्भ में शुक्र श्वेत ज्योति को कहते हैं । अश्व और गौ के संदर्भ में पात्रों की प्रकृति के निहितार्थ अन्वेषणीय हैं ।

          जब अजा, अवि, गौ, अश्व और पुरुष पशुओं को सामगान की भक्तियों हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार व निधन से सम्बद्ध किया जाता है तो इन भक्तियों के निहितार्थ समझना आवश्यक हो जाता है । ऐतरेय आरण्यक १.३.१ में निष्केवल्य शस्त्र के संदर्भ में हिंकार को अभ्रि/छेनी कहा गया है जिससे पृथिवी का खनन किया जाता है । प्रस्ताव के संदर्भ में जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.३.१.६ के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य में कुछ पाने की कामना होना प्रस्ताव के अन्तर्गत आता है । उद्गीथ भक्ति के संदर्भ में उद्गीथ शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । टिप्पणी में उद्गीथ को ओंकार से सम्बद्ध किया गया है, वह अवस्था जहां सारी ऊर्जा अनुनाद अवस्था में है, उस ऊर्जा का क्षरण नहीं हो रहा है । शारीरिक स्तर पर उद्गीथ को पशु के मांस से सम्बद्ध किया गया है । प्रतिहार के सम्बन्ध में स्थिति अभी अस्पष्ट सी है । एक विशेष प्रकार के साम में वर्षा उद्गीथ है, विद्युत प्रतिहार है । अन्य साम के संदर्भ में गौ उद्गीथ है, अश्व प्रतिहार है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.९.३ का कथन है कि "भविष्यत्प्रति चाहरत्" । इससे प्रतीत होता है कि गौ रूपी ऊर्जा की अनुनादित अवस्था से ऊर्जा को ग्रहण करना प्रतिहार अवस्था हो सकता है । जब प्रतिहार को विद्युत कहा जाता है तो श्री जे.ए.गोवान की वैबसाईटों का उल्लेख करना अनिवार्य हो जाता है जिसमें उन्होंने प्रस्ताव रखा है कि जड पदार्थ के परमाणुओं में जो विद्युत का भाग दृष्टिगोचर होता है, वह सूर्य का अंश है जिसमें सममिति विद्यमान है । पदार्थ का जड भाग असममित है । ऐसी कल्पना की गई है कि सृष्टि के आरम्भ में जो सममिति विद्यमान थी, वह सृष्टि के पश्चात् नष्ट नहीं हो सकती । यदि जड पदार्थ असममित है तो नष्ट हुई सममिति किसी एण्टी मैटर में विद्यमान होनी चाहिए, ऐसी संभावना है । और निधन के बारे में ऐसा सोचा जा सकता है कि यह कोई पूर्णतः सममित अवस्था हो सकती है ।

     सामगान में सार्वत्रिक रूप से हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार व निधन भक्तियों का प्रयोग किया जाता है। कहा गया है कि पुरुष निधन है। ऐसा प्रतीत होता है कि निधन शब्द निधान का परोक्ष रूप है। निधान से निधि शब्द बना है। निधान शब्द का रहस्य कथासरित्सागर ६.८.६७ की इस कथा से उद्घाटित होता है कि एक ब्राह्मण मानववसा का दीप लेकर निधान की खोज कर रहा था। अचानक उसका दीप पृथ्वी पर गिर गया। उसने समझ लिया कि यहीं निधान छिपा है। यह संकेत करता है कि जब मानववसा का दीपन समाप्त हो जाए, वह निधान है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्राणीजीवन का सारा आधार वसा है। वसा या मज्जा के दीपन से अन्य देहव्यापार चलते हैं। कैंसर व्याधि की चिकित्सा में मज्जा की कोशिकाओं का विघटन कुछ समय के लिए रोक दिया जाता है। यही दीप का, दीपन का गिरना है। तो सामगान में निधन का अर्थ होगा वसा कोशिकाओं के विघटन पर रोक। जैमिनीय ब्राह्मण आदि में उल्लेख आता है कि अस्त होता हुआ आदित्य इस भूमि में छह प्रकार से छिपा –

स वा एषो ऽस्तं यन् ब्राह्मणम् एव श्रद्धया प्रविशति पयसा पशूंस् तेजसाग्निम् ऊर्जौषधी रसेनापस् स्वधया वनस्पतीन्॥ - जैब्रा. १.७

इसका अर्थ होगा कि निधन या अस्त केवल स्थूल स्तर तक ही सीमित नहीं है, सूक्ष्म स्तरों पर भी विचार करना होगा। निधन से पूर्व की स्थिति है प्रत्याहार – प्रति – आहरण। यह संभवतः कोशिकाओं के स्तर पर सर्वश्रेष्ठ का चयन है।

पांच भक्तियों को समझने के लिए वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता का निम्नलिखित मन्त्र भी उपयोगी हो सकता है

लोमानि प्रयतिर्मम त्वङ् म ऽआनतिरागति: ।

मांसं म ऽउपनतिर्वस्वस्थि मज्जा मऽआनति: ।। - वा.सं. २०.१३

इस यजु में प्रयति से अर्थ प्रयाण से जाने से हो सकता है, आगति से आने से । जब लोम या रोम हर्षण होने लगे, तब प्रयाण, आरम्भ समझना चाहिए ।

        ऐसा भी हो सकता है कि प्रतिहार अष्टांग योग के पांचवें अंग प्रत्याहार से सम्बन्धित हो । प्रत्याहार में अपनी चेतना को इन्द्रियों से वापस खींचा जाता है । जैसा कि सभी का अनुभव है, सामान्य रूप से इन्द्रियों से चेतना को वापस लाना संभव नहीं है । शारीरिक स्तर पर इसे पशु की अस्थि के तुल्य कहा गया है । निधन भक्ति अष्टांग योग की समाधि से सम्बन्धित हो सकती है । शारीरिक स्तर पर इसे पशु की मज्जा के तुल्य कहा गया है जो सारे शरीर की क्रियाओं का संचालन करने के लिए उत्तरदायी है ।

          एक ओर जहां वैदिक साहित्य में अजा आदि पांच ग्राम्य पशुओं के उल्लेख आते हैं, वहीं ७ ग्राम्य व ७ आरण्य पशुओं के उल्लेख भी आते हैं ( उदाहरण के लिए, अथर्ववेद ३.१०.६, ऐतरेय ब्राह्मण २.१७ आदि )। पुराणों में भी ७ - ७ ग्राम्य व आरण्यक पशुओं के ही उल्लेख मिलते हैं । ऐसा लगता है कि जब वैदिक साहित्य में ७ ग्राम्य पशुओं की व्याख्या करनी होती है, तब ५ भक्तियों में २ भक्तियां और जोड दी जाती हैं - आदि और उपद्रव । इस प्रकार भक्तियों का क्रम यह हो जाता है : हिंकार, प्रस्ताव, आदि, उद्गीथ, प्रतिहार, उपद्रव और निधन ( द्रष्टव्य छान्दोग्य उपनिषद, जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण १.३.१.६, १.३.२.४, १.१०.१.३ आदि ) । ऋग्वेद १०.९० के पुरुष सूक्त की १५वी ऋचा में विराट् पुरुष की ७ परिधियों का उल्लेख है । अथर्ववेद ८.२.२५( तथा तैत्तिरीय आरण्यक ६.१२.२) का कथन है कि "सर्वो वै तत्र जीवति गौरश्व: पुरुष: पशु: । यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनाय कम् ।।" अर्थात् जहां जीवन हेतु ब्रह्म रूपी परिधि बना दी जाती है, वहां कोई प्राणी मरता नहीं है । पुरुष सूक्त में ७ परिधियों का उल्लेख है । हो सकता है कि यह ७ परिधियां सामवेद की ७ भक्तियां हों ।

पशु व इडा :    

वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है कि पशु पांक्त हैं और यज्ञ भी पांक्त होता है । पांक्त से अर्थ है पंक्ति छन्द वाला । पंक्ति छन्द पांच पंक्तियों वाला होता है । कहा गया है कि लोम, त्वक्, मांस, अस्थि व मज्जा के अस्तित्व से पशु पांक्त बनता है । इस कथन के रहस्य को कुछ सीमा तक छान्दोग्य उपनिषद २.१९.१ के इस कथन से समझा जा सकता है कि पशु के लोम, त्वक्, मांस, अस्थि व मज्जा एक सामगान विशेष( यज्ञायज्ञीय नामक) में क्रमशः हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार व निधन के प्रतीक हैं । यह संकेत करता है कि पशु याज्ञिक तभी बन सकता है जब उसमें पांचों भक्तियों का समावेश हो गया हो । पशुओं के संदर्भ में सामगान में कईं स्थानों पर इडा निधन का उल्लेख है । यदि साम की भक्तियों की तुलना यजुर्वेद की भक्तियों से करें तो यजुर्वेद की भक्तियां ओश्रावय, अस्तु श्रौषट्, यज, ये यजामहे और वौषट् कहलाती हैं । अन्तिम भक्ति वषट् या वषट्कार कहलाती है जो असुरों पर वज्र का कार्य करती है । अन्यत्र कहा गया है कि वौषट् में असौ वै वौ, ऋतवो वै षट्, अर्थात् सूर्य वौ है, ६ ऋतुएं षट् हैं । यदि वषट्कार की तुलना सामगान के निधन से करें तो निधन भक्ति भी वज्र रूप होनी चाहिए । वज्र रूप तब प्राप्त होता है जब जड पदार्थ में चेतन तत्त्व सूर्य प्रतिष्ठित हो जाए । जब पशु का विचार करते हैं तो वहां मज्जा निधन होता है । जब सामगान का विचार करते हैं तो वहां पशुकामना पूर्ति हेतु इडा निधन होता है( ताण्ड्य ब्राह्मण ७.१.११, १३.४.१० ) । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है कि पशवो वा इडा( ऐतरेय ब्राह्मण २.३०, तैत्तिरीय संहिता ५.६.४.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.६.६, ३.३.८.२, जैमिनीय ब्राह्मण १.३०५, ३.१५, ३.६९, ताण्ड्य ब्राह्मण ७.३.१५) । वैदिक साहित्य में इडा को पाकयज्ञिया कहा जाता है, अर्थात् जैसे - जैसे यज्ञ पूर्णता को प्राप्त होगा, इडा भी पकती जाएगी(पाकयज्ञं वा अन्व् आहिताग्नेः पशव उप तिष्ठन्त इडा खलु वै पाकयज्ञः - तैत्तिरीय संहिता १.७.१.१) । जैमिनीय ब्राह्मण ३.६९ का कथन है कि पशवो वा इळा स्वर्गो लोक: स्व: । पशुष वाव ते (अङ्गिरसः) तद् आस्थाय स्वर्गं लोकम् अगच्छन् । इन कथनों को समझने के लिए कुछ सूत्र प्राप्त होते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.६.६ में साकमेध के संदर्भ में कहा गया है कि "अग्निं स्विष्टकृतं यजति प्रतिष्ठित्यै । इडान्तो भवति । पशवो वा इडा । पशुष एवोपरिष्टात् प्रतितिष्ठति ।" यहां अग्नि स्विष्टकृत् को इडान्त कहा गया है । अर्थात् इडा वह है जब अग्नि का हिंसक रूप बिल्कुल समाप्त हो जाए । ताण्ड्य ब्राह्मण ७.३.१५ का कथन है कि "पशवो वा इडा पशवो बृहती" । ताण्ड्य ब्राह्मण ७.६.१७ का कथन है कि "ऐरं बृहत् ऐडं रथन्तरं" । ताण्ड्य ब्राह्मण ७.७.१ का कथन है कि "पशवो बृहद्रथन्तरे" । इससे संकेत मिलता है कि जब पशुओं का रथन्तर रूप होता है, उनकी समता इडा से की जा सकती है । पशुओं का यह रथन्तर रूप स्व: रूपी स्वर्ग को प्राप्त करने में आधार का काम करता है ( वैदिक साहित्य में उल्लेख आता है कि मनु की पुत्री इडा मनु का हाथ पकड कर उनको स्वर्ग ले जाती है ) । रथन्तर और बृहत् शब्दों के स्वरूप को ठीक तरह समझ लेने की आवश्यकता है । जब पृथिवी या अन्य कोई वस्तु सूर्य (या चन्द्रमा) में अपनी ऊर्जा का समावेश करती है तो वह रथन्तर होता है । इसके विपरीत, जब सूर्य अपनी ऊर्जा का समावेश पृथिवी आदि में करता है तो वह बृहद् स्थिति होती है ।

           शतपथ ब्राह्मण २.१.४.१३ में भू, भुव: और स्व: नामक तीन व्याहृतियों के बारे में उल्लेख आता है कि प्रजापति ने भू से स्वयं को उत्पन्न किया, भुव: से प्रजा को और स्व: से पशुओं को । भू और भुव: इन तीन अक्षरों से गार्हपत्य की स्थापना करते हैं जबकि भूर्भुव:स्व: पांच अक्षरों से आहवनीय की । यह कुल ८ अक्षर हो जाते हैं जो गायत्री का प्रतीक है । तैत्तिरीय संहिता १.७.१.४ में पशुमान् होने के लिए प्रतीची इडा के उप - आह्वान का निर्देश है(यं कामयेतापशुः स्याद् इति पराचीं तस्येडाम् उप ह्वयेतापशुर् एव भवन्ति यम् कामयेत पशुमान्त् स्याद् इति प्रतीचीम् तस्येडाम् उप ह्वयेत पशुमान् एव भवति)

पशु व अङ्गिरस :

शतपथ ब्राह्मण ४.५.१.८ से संकेत मिलता है कि पशु अङ्गिरसों से अवर श्रेणी में आते हैं । जैसा कि अङ्गिरस की टिप्पणी में कहा जा चुका है, अङ्गिरस प्राण वह होते हैं जो बहुत धीरे - धीरे प्रगति करते हैं । ताण्ड्य ब्राह्मण १३.९.२५ के अनुसार अङ्गिरसों का गोष्ठ होता है जहां पशु लौटकर एकत्र होते हैं । आदित्यों का यज्ञ अद्य प्रकार का होता है, आज ही पूर्ण हो जाने वाला, जबकि अङ्गिरसों का श्व: प्रकार का, कल पूरा होने वाला होता है ।

तैत्तिरीय संहिता ३.३.५.३ में पशुओं के संदर्भ में यजु में 'भूतमसि भव्यं नाम' पद का प्रयोग हुआ है । यह इंगित करता है कि पशु भूत और भविष्य से सम्बन्धित हैं ( जैमिनीय ब्राह्मण ३.१८ का कथन है कि 'पशव: श्वस्तनं प्रजा श्वस्तनं स्वर्गो लोको श्वस्तनं' ) ।  जैमिनीय ब्राह्मण २.४१(प्राण एवाविषुवतो व्यानो विषुवान् अपानो यद् ऊर्ध्वं विषुवतः।) व २.४२ में गवामयन याग के संदर्भ में कहा गया है कि प्राण - अपान पशु रूप हैं जबकि व्यान आदित्य रूप है । सोते समय जब प्राण - अपान साथ छोड देते हैं, उस समय व्यान ही के कारण पशु जीवित रहता है । व्यान को गवामयन याग का मध्यम दिन विषवान् कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ६.४.४.१ में पशुओं को सोम और व्यान को उपांशुसवन कहा गया है(पशवो वै सोमो व्यान उपाशुसवनः ।) । उपांशुसवन द्वारा सोम को शुद्ध करने का अर्थ होगा कि  व्यान को पशुओं में धारण कराते हैं ।

          ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक साहित्य में पशु को मुख्य रूप से अग्नि और सोम, दो रूप दिए गए हैं । पशु के सोमात्मक होने के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ५.१.३.७ में पशु को प्रत्यक्ष सोम कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ३.८.३.३३ में वनस्पति को सोम कहा गया है । पशु को सोम बनाने का निर्देश है ।

पशु व उत्तरवेदी :

तैत्तिरीय संहिता ५.२.५.६(उत्तरवेदिम् उप वपति । उत्तरवेद्या ह्य् अग्निश् चीयते । अथो पशवो वा उत्तरवेदिः पशून् एवाव रुन्द्धे । ) व ६.५.९.३ में पशुओं को उत्तरवेदी कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण १२.९.१.११ में सौत्रामणी याग के संदर्भ में आत्मा को वेदी, प्रजा को उत्तरवेदी और उत्तरवेदी का आच्छादन करने वाली बर्हि को पशु कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता २.६.४.३ का कथन है कि वेदी पर जो पुरीष/रेत बिछाया जाता है, वह प्रजा और पशु का रूप ही है (पुरीषवतीं करोति प्रजा वै पशवः पुरीषं) । उत्तरवेदी का आविर्भाव मुख्य रूप से सोमयाग में होता है । सोमयाग में पहले सोम का अतिथि के रूप में क्रय किया जाता है और उसे प्राग्वंश में आहवनीय के समीप एक आसन्दी पर रखा जाता है । इस बीच महावीर नामक मृत्तिका पात्र में उबलते हुए घृत में पयः का सिंचन कर एक घर्म के रूप में, ज्वाला के रूप में प्रवर्ग्य की सृष्टि की जाती है । प्रवर्ग्यों का क्रम पूरा होने के पश्चात् ही उत्तरवेदी की सृष्टि की जाती है जहां क्रीत सोम का परिष्करण कर उसे देवों को अर्पित किया जाता है । जब पशु को या प्रजा को उत्तरवेदी कहा जाता है तो उससे तात्पर्य यह हो सकता है कि प्रवर्ग्य के रूप में सोमयाग के शिर का तो निर्माण कर लिया गया है, अब उसके शेष शरीर के रूप में पशु रूपी उत्तरवेदी कार्य करती है । चातुर्मास्य याग ऐसा है कि उसके आरम्भिक एक पर्व (वैश्वदेव) में उत्तरवेदी का अस्तित्व नहीं होता ( तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.२.७, १.६.४.३) जबकि शेष तीन पर्वों( वरुण प्रघास, साकमेध व शुनासीर) में होता है । तैत्तिरीय संहिता ६.२.८.२ में उत्तरवेदी को सिंही कहा गया है । यह उल्लेखनीय है कि जैमिनीय ब्राह्मण १.७ में अग्निहोत्र के संदर्भ में कहा गया है कि अस्त होते हुए आदित्य ने अपना तेज पशुओं में पयः रूप से स्थापित किया । अतः जब प्रवर्ग्य सृष्टि हेतु पयः को पशुओं से प्राप्त किया जाता है तो यह प्राप्ति कोई सरल घटना नहीं है । आदित्य और पशु का संयोग होने पर ही पयः की सृष्टि हो सकती है । और वैदिक साहित्य के अनुसार आदित्य पशुओं में व्यान  के रूप में प्रवेश करता है । अतः पयः का भी किसी प्रकार से व्यान से सम्बन्ध होना चाहिए ।

पशु व यूप :

उत्तरवेदी के सबसे पूर्व में यूप गडा होता है जिसके साथ पशु आलभन से पूर्व पशु को बांधते हैं ( पशवे यूपमुच्छ्रयन्ति - शतपथ ब्राह्मण ३.७.२.४)। यूप से बांधने  से पूर्व पशु का आलभन नहीं किया जा सकता ( शतपथ ब्राह्मण ३.७.३.२) । यूप से बंधने के कथन को गहरी दृष्टि से देखने की आवश्यकता है । कहा गया है कि आदित्य यूप है और यजमान पशु है । यह यूप पशु के लिए वज्र का कार्य करता है( ऐतरेय ब्राह्मण २.३), पशु को वश में करता है । आदित्य से पशु का सम्पर्क होने पर उसकी चेतना तो स्वयं ही विराट् रूप में स्थित हो जाएगी । यही पशु का संज्ञपन या आलभन कहलाता होगा । जैमिनीय ब्राह्मण २.२६ व शतपथ ब्राह्मण ११.८.३.१० में कहा गया है कि आदित्य ने बहुत सी वस्तुओं से उनके सर्वश्रेष्ठ अंशों को ग्रहण किया । पशुओं से उसने उनका चक्ष:, सम्यक् दर्शन की शक्ति ग्रहण की । अतः पशुओं में चक्षण की क्षमता नहीं होती, वह सूंघकर आभास करते हैं । इस चक्ष: को पशु की पराकाष्ठा कहा जा सकता है क्योंकि पशु शब्द की एक निरुक्ति पश्यति इति पशु के आधार पर है। जब तक पशु पशु रहेगा, उसे चक्ष: प्राप्त नहीं होगा ।

पशु व उक्थ्य :  

 वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से पशुओं को उक्थ्य कहा गया है । सोमयाग में सोम का शोधन तीन सवनों में किया जाता है । पहले दो सवनों में शोधन द्वारा सोम देवों को प्राप्त होता है और तीसरे सवन के शोधन द्वारा वह मनुष्य से देवता बने ऋभुगण को भी प्राप्त होता है । तृतीय सवन के अन्त में उक्थ्य स्तोत्रों का सम्पादन होता है । जैसा कि उक्थ की टिप्पणी में कहा जा चुका है, ऐसा अनुमान है कि जो प्राण सोए पडे हैं, उन्हें उक्थ्य के द्वारा जगाया जाता है । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से पशुओं को उक्थ्य कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ३.२.९.२ के अनुसार प्रातःसवन द्वारा आत्मा में तेज को धारण किया जाता है, माध्यन्दिन द्वारा इन्द्रिय को और तृतीयसवन द्वारा पशुओं को ।

पशु व पृष्ठ्य षडह :

गवामयन याग में पहले छह दिन अभिप्लव षडह और उससे अगले छह दिन पृष्ठ्य षडह कहलाते हैं । कहा गया है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.३१) कि ब्रह्म अभिप्लव है, क्षत्रिय पृष्ठ्य हैं । दूसरे शब्दों में, देवों की या सूर्य की प्रगति अभिप्लव द्वारा, छलांग लगाकर होती है, जबकि अङ्गिरस प्राणों की प्रगति धीरे - धीरे पृष्ठ्य षडह द्वारा होती है ( गोपथ ब्राह्मण १.४.२३) । अभिप्लव षडह के दिवसों की प्रकृति रथन्तर - बृहत्, रथन्तर - बृहत्, रथन्तर - बृहत् प्रकार से होती है, अर्थात् एक दिन रथन्तर पृष्ठ होता है तो दूसरे दिन बृहत् पृष्ठ । माध्यन्दिन सवन के पश्चात् सम्पन्न होने वाले पृष्ठ साम की प्रकृति क्या है, इसी के द्वारा पूरे दिन की प्रकृति का निर्धारण हो जाता है । पृष्ठ्य षडह में छह दिनों की प्रकृति क्रमशः रथन्तर, बृहत्, वैरूप, वैराज, शक्वर व रेवती प्रकार की होती है । गौ को रथन्तर, अश्व को बृहत्, अजा को वैरूप, अवि को वैराज, व्रीहि को शक्वर और यव को रेवती प्रकार का कहा गया है । छान्दोग्य उपनिषद २.१० - २.२० में गायत्र, रथन्तर, वामदेव्य, बृहत् आदि विभिन्न प्रकार के पृष्ठ सामों में हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार व निधन भक्तियों का विवरण दिया गया है । रथन्तर साम की भक्तियों की तुलना अग्नि के मन्थन, धूम उत्पादन, ज्वलन, अंगार और उपशमन द्वारा की गई है । यह गौ का प्रकार है । इस तुलना को इस प्रकार न्यायोचित मान सकते हैं कि प्रायः गौ को पृथिवी कहा जाता है । पृथिवी की ज्योति अग्नि होती है । बृहत् की भक्तियों की तुलना आदित्य के उदित - पूर्व की अवस्था, उदित अवस्था, मध्यन्दिन, अपराह्न, व अस्त से की गई है । यह अश्व की स्थिति है । इस तुलना को इस प्रकार न्यायोचित मान सकते हैं कि आकाश में विचरण करते हुए सूर्य को अश्व कहा जाता है । वैरूप की भक्तियों की तुलना अभ्रों के संप्लवन, मेघ निर्माण, वर्षण, विद्योतन व स्तनयन, उद्गृहण से की गई है । यह अज अवस्था है । इसकी भक्तियों को कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है, यह अन्वेषणीय है । वैराज की भक्तियों की तुलना वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त से की गई है । यह अवि रूप है । इसकी भक्तियों को इस प्रकार न्यायोचित माना जा सकता है कि वैदिक साहित्य में प्रायः अज को रथन्तर और अवि को बृहद् प्रकार का माना जाता है । पृथिवी पर ऋतुओं का जन्म सूर्य के पृथिवी में प्रवेश से होता है । शक्वरी की भक्तियों की तुलना पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ, दिशाएं और समुद्र से की गई है । यह व्रीहि रूप है । रेवती की भक्तियों की तुलना अजा, अवि, गौ, अश्व, पुरुष से की गई है । यह यव रूप है ।

पशु व पुरोडाश :

          वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से पुरोडाश को पशु कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण १.२.३.५ ) । पुरोडाश को पिसे हुए आटे द्वारा बनाया जाता है । कहा गया है कि पुरोडाश में पशु के लोम, त्वक्, मांस, अस्थि और मज्जा पांचो अवयवों का समावेश होता है । जो पिष्ट होते हैं, वह लोम होते हैं, जो आपः लाते हैं, वह त्वक् रूप है, जो मिलाते हैं, वह मांस रूप है, जो पकाते हैं, वह अस्थि रूप है । जो ऊपर से अभिक्षारण करते हैं/घृत लगाते हैं, वह मज्जा रूप है । पुरोडाश के पशुओं से सम्बन्ध को एक और आख्यान से स्पष्ट किया जाता है ( ऐतरेय ब्राह्मण २.८ - २.९) । देवों ने पुरुष पशु का आलभन किया तो पुरुष का मेध अपक्रान्त होकर अश्व में प्रवेश कर गया, अश्व का गौ में, गौ का अवि में, अवि का अज में और अज का पृथिवी में व्रीहि और यव में । अतः जब पुरोडाश बनाने के लिए व्रीहि और यव का उपयोग करते हैं तो वह इसी मेध के आलभन के लिए करते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण २.११ का कथन है कि यज्ञ में पशु की वपा का उपयोग प्रातःसवन में, हृदय का उपयोग माध्यन्दिन सवन में और अंगों का उपयोग तृतीय सवन में हवि हेतु किया जाता है । उसके लोम, त्वक्, असृक्, कुष्ठिका, शफ, विषाण आदि का पृथिवी में स्कन्दन हो जाता है । पुरोडाश द्वारा इनकी आपूर्ति हो जाती है(ऐतरेय ब्राह्मण २.११) । पुरोडाश का कौन सा अवयव पशु के किस अवयव के तुल्य होता है, यह ऐतरेय ब्राह्मण २.९ में दिया गया है ।पौर्णमास याग में पहले दिन सायंकाल अग्नीषोमीय पशु का आलभन किया जाता है और दूसरे दिन प्रातःकाल पुरोडाश की हवि दी जाती है । इस दिन देवगण पशु रूपी चन्द्रमा का आलभन करते हैं । पुरोडाश के महत्त्व को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि पुरोडाश में पशु के लोम, त्वक् आदि ५ अवयवों का समावेश होना आवश्यक है । यह लोम, त्वक् आदि वही सामगान की ५ भक्तियां हैं जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । पशु प्राणी में तो इन भक्तियों की कल्पना की जा सकती है लेकिन वैदिक साहित्य यव और व्रीहि जैसे जड पदार्थों से बने पुरोडाश में भी इन भक्तियों के समावेश का निर्देश देता है । शतपथ ब्राह्मण ६.२.२.१२ तथा तैत्तिरीय संहिता ५.५.१.३ में पशु को वायव्य और पशुपुरोडाश को प्राजापत्य कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता १.५.२.३ में यजमान को पुरोडाश कहा गया है जिसके अभितः पशु रूपी आहुतियां दी जाती हैं । ऐसा करके यजमान को पशुओं द्वारा परिग्रहण किया जाता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.८.६.३ के अनुसार अनुयाज कर्म से पूर्व पुरोडाशों द्वारा प्रचरण किया जाता है । पशु ही पुरोडाश हैं ।

          सोमयागों में प्रातःकाल के सवन के मुख्य रूप से दो कृत्य होते हैं - बहिष्पवमान और आज्य । बहिष्पवमान उत्तरवेदी से बाहर और आज्य उत्तरवेदी में स्थित होकर किया जाता है । ताण्ड्य ब्राह्मण ६.८.८ का कथन है कि यह जो बहिष्पवमान स्तोत्र एकरूपाओं द्वारा किया जाता है, यह आरण्यक पशुओं के लिए किया जाता है जो एकरूप होते हैं । इसके पश्चात् जो आज्य नामक कृत्य होता है, वह ग्राम्य पशुओं के लिए किया जाता है ( ताण्ड्य ब्राह्मण ६.८.१२, ७.२.६) ।

पशु, पयः और पृषदाज्य

पशुओं में पयः की उत्पत्ति किस प्रकार की जाए, यह अभी तक एक प्रश्न ही बना हुआ है । जैमिनीय ब्राह्मण १.७ में अग्निहोत्र के संदर्भ में उल्लेख आता है कि अस्त होते हुए सूर्य ने अपना तेज पशुओं में पयः के रूप में स्थापित किया । सारे वैदिक साहित्य में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि पशुओं में पयः का निर्माण किस प्रकार होता है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार उपकला कोशिकाएं पयः निर्माण के लिए उत्तरदायी हैं । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१४५ का कथन है कि रेवतयः(छठां दिन) पयः है जबकि पांचवां( पृष्ठ्य) शक्वर नामक अह पशु हैं । शतपथ ब्राह्मण ७.५.२.१७ का कथन है कि "आदित्यं गर्भं पयसा समङ्ग्धि" । शतपथ ब्राह्मण ३.८.४.८ का कथन है कि पशु अनुयाज हैं( ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि पशवो वै प्रयाजा: ) और पयः पृषदाज्य है । यहां प्रश्न उठ खडा होता है कि पृषदाज्य क्या होता है ? सांकेतिक रूप में तो घृत में दधि मिलाकर उसे पृषदाज्य का नाम दिया जाता है । शतपथ ब्राह्मण ११.५.६.४ का कथन है कि आज्य आहुतियां यजु ( ऐसी क्रिया जिससे अव्यवस्था उत्पन्न न हो ) रूप होती हैं जबकि पयः आहुतियां ऋचाओं का रूप होती हैं । तैत्तिरीय संहिता ६.३.११.६ का कथन है कि प्रजापति ने पहले आज्य की रचना की, पशुओं की मध्य में और अन्त में पृषदाज्य की । अतः प्रयाज इष्टि आज्य द्वारा की जाती है, पशुओं द्वारा मध्य में और पृषदाज्य द्वारा अनूयाज इष्टि की जाती है । शांखायन ब्राह्मण १०.६ का कथन है कि 'धामभाजो देवा पाथभागो वनस्पति: । - - - पाथ: पितर: पितृदेवत्य इव वै पशु: । पितृदेवत्यं पयः ।' तैत्तिरीय ब्राह्मण १.८.६.३ के अनुसार अनुयाज कर्म से पूर्व पुरोडाशों द्वारा प्रचरण किया जाता है । पशु ही पुरोडाश हैं । पृषदाज्य पशुओं के प्राणापान का रूप है ( तैत्तिरीय संहिता ६.३.९.६) । शतपथ ब्राह्मण ३.८.४.८ का कथन है कि पशु अनुयाज हैं, पयः पृषदाज्य है । इस प्रकार पशुओं में पयः की स्थापना करते हैं । पृषदाज्य के संदर्भ में ऋग्वेद १०.९०.८ का कथन है कि "तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम् । पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये ।।" शतपथ ब्राह्मण २.३.२.१६ में अग्निहोत्र के संदर्भ में कहा गया है कि जो पूर्वाहुति है, वह देवों के लिए है, जो उत्तराहुति है, वह मनुष्यों के लिए और जो स्रचि में (आज्य) शेष रहता है, वह पशु हैं । यह अन्वेषणीय है कि क्या शेष आज्य को पृषदाज्य कहा जा सकता है ? शांखायन ब्राह्मण १३.४ में सोम के १० अंशुओं को गिनाया गया है जिनसे पूर्ण सोम बनता है । इनमें से पयः को जीव अंशु और पशु को अमृत अंशु कहा गया है । स्वयं पशु ही सोम है ।

पशु, पयः और व्यान :

शतपथ ब्राह्मण ४.३.५.१३ का कथन है कि पशु आदित्यों के अनुदिश होते हैं, अतः पयः का धारण पशु में होता है । आदित्य मर्त्य स्तर पर व्यान की प्रतिष्ठा करता है । अतः ऐसा हो सकता है कि व्यान ही पयः की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी हो । कहा गया है कि प्राण और अपान तो पशु होते हैं लेकिन यह मर्त्य जिससे जीवन धारण करता है, वह व्यान है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.४२, तैत्तिरीय संहिता ६.१.९.७) । व्यान की पूर्ति आदित्य करता है ( द्रष्टव्य - गवामयन याग के संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण २.४१ का यह कथन कि विषवान् दिवस से पूर्व तक प्राण का आधिपत्य है, विषवान् दिवस व्यान है और विषवान् दिवस के पश्चात् अपान का वर्चस्व होता है । अपान इस सबका आहरण करता है ) । व्यान क्या हो सकता है, इस संदर्भ में छान्दोग्य उपनिषद १.३.३ का कथन है कि प्राण और अपान की सन्धि व्यान है । ऐतरेय आरण्यक ५.१.४ से संकेत मिलता है कि व्यान की गति तिर्यक् प्रकार की होनी चाहिए(प्राणमनु प्रेङ्खस्वेति प्राञ्चं प्रेङ्खं प्रणयति व्यानमन्वीङ्खस्वेति तिर्यञ्चमपानमन्वीङ्खस्वेत्यभ्यात्मम्) । गोपथ ब्राह्मण २.५.४ का कथन है कि सामगान करने वाले ऋत्विजों में प्रतिहर्त्ता ऋत्विज व्यान का प्रतिनिधित्व करता है (तस्य मन एव ब्रह्मा प्राण उद्गाता अपानः प्रस्तोता व्यानः प्रतिहर्ता वाग् घोता चक्षुर् अध्वर्युः)। शतपथ ब्राह्मण २.२.२.१८ का कथन है कि यज्ञ की तीन अग्नियों गार्हपत्य, अन्वाहार्यपचन और आहवनीय में से अन्वाहार्यपचन अग्नि व्यान का रूप है । इस अग्नि का देवता नळ नैषध है । यज्ञ में इस अग्नि का उपयोग अन्न पकाने के लिए किया जाता है । इस अग्नि से अन्न में रस उत्पन्न हो जाता है । यही कारण है कि पौराणिक कथा में राजा नळ बाहुक रूप में रसोईये का काम भी करता है । अन्यत्र ( शतपथ ब्राह्मण ११.१.८., तैत्तिरीय संहिता १.७.३.१-२) में कहा गया है कि इस अग्नि का अन्वाहार्य नाम इसलिए है कि यज्ञ में जो हीन होता है, क्रूर होता है, उसका आहरण अन्वाहार्य द्वारा किया जाता है । अतः यदि व्यान पयः की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है तो यह एक सम अवस्था, साम की अवस्था होनी चाहिए । तैत्तिरीय संहिता ६.४.४.१ के अनुसार पशु सोम हैं और व्यान उपांशुसवन( सोम शुद्ध करने का पत्थर?) है । इससे पशुओं में व्यान को धारण कराते हैं ।अथर्ववेद १५.१५ से १५.१७ सूक्त प्राण, अपान और व्यान के संदर्भ में हैं । इन सूक्तों में प्राण आदि में से प्रत्येक को ७ भागों में विभाजित किया गया है । छठे प्राण को पशव: कहा गया है । भूमि से आरम्भ करके संवत्सर तक ७ व्यानों को गिनाया गया है ।

          ताण्ड्य ब्राह्मण १३.४.१० का कथन है कि ओजस्कामी के लिए सामगान में अथकार निधन का उच्चारण किया जाता है जबकि पशुकामी के लिए इडा निधन का । इडा निधन से पयः के द्वारा उस लोक में प्रतिष्ठित होता है ।

          सौत्रामणी याग के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १२.७.३.१८ में पशुओं को पयोग्रहा: और अन्न को सुराग्रहा: कहा गया है । फिर ग्राम्य पशुओं को पयोग्रहा: और आरण्यक पशुओं को सुराग्रहा: कहा गया है ।

पशु व छन्द :

 पशुओं को सार्वत्रिक रूप से जगती छन्द के साथ सम्बद्ध किया गया है ( उदाहरण के लिए, ऐतरेय ३.२५ तैत्तिरीय संहिता २.५.१०.२, ताण्ड्य ब्राह्मण १३.४.१०) क्योंकि जगती छन्द जब सोम का आहरण करने द्युलोक में गया था, तब वहां से वह असफल होकर दीक्षा व पशु के साथ लौटा था । पशु १६ कलाओं वाले होते हैं ( ताण्ड्य ब्राह्मण ३.१२.२) ।

          पशुओं को सार्वत्रिक रूप से छन्द कहा गया है ( उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय संहिता ३.४.९.२, ५.४.११.१) । कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण १.८.२.१४, ४.४.३.१) कि जैसे पशु मनुष्यों के लिए भार वहन करते हैं, ऐसे ही देवों के लिए छन्द भार वहन करते हैं । पशु छन्द कैसे हो सकते हैं, इसका एक संकेत तैत्तिरीय संहिता ५.४.८.५ से मिलता है । कहा गया है कि 'ऋक् च म साम च म एतद्वै छन्दसां रूपं । गर्भाश्च मे वत्साश्च म एतद्वै पशूनां रूपं ।' इससे संकेत मिलता है कि जब तक दिव्य वाक् की गर्भ जैसी स्थिति है, वह स्पष्ट नहीं हुई है, तब तक वह पशु जैसी है, गर्भ में है । जब वह स्पष्ट होकर ऋक् और साम बन जाती है, तब वह छन्द रूप हो जाती है ।

पशु व छन्दोम :

 द्वादशाह नामक सोमयाग में पहला दिन प्रायणीय अह होता है, उससे अगले ६ दिन पृष्ठ्य षडह होते हैं, उससे अगले तीन दिनों की छन्दोम संज्ञा होती है और दसवां दिन अविवाक्यम् होता है । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख मिलता है कि पशवो वै छन्दोमा: । छन्दोमों द्वारा इस लोक की जय होती है । तैत्तिरीय संहिता ७.३.३.२ में द्वादशाह यज्ञ के संदर्भ में पशुओं को तीन छन्दोम संज्ञक दिन कहा गया है (पशवो वै छन्दोमा अन्नम् महाव्रतम् । यद् उपरिष्टाच् छन्दोमानाम् महाव्रतं कुर्वन्ति पशुषु चैवान्नाद्ये च प्रति तिष्ठन्ति ॥)। तैत्तिरीय संहिता ७.३.५.२ व ७.३.६.२ का कथन है कि पृष्ठों द्वारा आदित्यों ने स्वर्ग लोक को आरोहण किया जबकि तीन( छन्दोम) दिनों द्वारा इस लोक में पशुओं को रखा?

पशु व स्तोम :

तैत्तिरीय संहिता ४.३.१०.२ में विभिन्न स्तोमों से विभिन्न प्रकार के पशुओं के सृजन का कथन है । सप्तदश स्तोम से पशुओं का सृजन किया गया जिनका अधिपति बृहस्पति था । एकविंश से एकशफ पशुओं का जिनका अधिपति वरुण था । त्रयोविंश से क्षुद्र पशुओं का जिनका अधिपति पूषा था । पंचविंश से आरण्य पशुओं का जिनका अधिपति वायु था । तैत्तिरीय संहिता २.५.५.२ में शिपिविष्ट विष्णु के संदर्भ में यज्ञ को विष्णु और पशु को शिपि(शिपृ – क्षरणे) कहा गया है ।

पशु व प्रयाज - अनुयाज :

 वैदिक साहित्य में प्रातरनुवाक् के संदर्भ में सार्वत्रिक रूप से ( उदाहरण के लिए, ऐतरेय ब्राह्मण २.१८) सोमपान करने वाले ३३ देवों हेतु सोम की आहुति और ३३ असोमपा देवों( ११ प्रयाज, ११ अनुयाज, ११ उपयाज) हेतु पशुओं की आहुति का निर्देश है । शांखायन ब्राह्मण १०.३ में उपवसथ में अग्नीषोमीय पशु के संदर्भ में प्रयाज और अनुयाज में अन्तर स्पष्ट किया गया है । प्राण प्रयाज है, अपान अनुयाज ; प्रयाजों में पूरी ऋचा का उच्चारण किया जाता है, अनुयाज में केवल ऋचा के प्रतीक मात्र का, प्रयाज रेतः सिंचन हैं जबकि अनुयाज रेतोधेय हैं । ११ प्रयाजों के संदर्भ में तैत्तिरीय संहिता ६.३.७.५ का कथन है कि १० पशु प्राण हैं, आत्मा एकादश है और वपा एक परिशय है जिसके द्वारा आत्मा को आत्मा में परिशयित किया जाता है । तैसं. ६.३.९.५ का कथन है कि वपा पशुओं में अग्र होती है, वैसे ही जैसे ओषधियों में बर्हि । आत्मा वपा है ।

          तैत्तिरीय संहिता २.२.७.१ में इन्द्रियवान् इन्द्र के लिए एकादश कपाल पुरोडाश निर्वपन का निर्देश है क्योंकि इन्द्रियां ही पशु हैं (तुलनीय : पुराणों का समान कथन ) । तैत्तिरीय संहिता १.६.७.३ में इन्द्रियों को आरण्य कहा गया है (यजमानेन ग्राम्याश् च पशवो ऽवरुध्या आरण्याश् चेत्य् आहुः । ....इन्द्रियम् वा आरण्यम् इन्द्रियम् एवात्मन् धत्ते)

पशु व प्रजा :

वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से प्रजा व पशु शब्द साथ - साथ मिलते हैं । प्रजा का पशु से क्या सम्बन्ध है, यह स्पष्ट नहीं है । शतपथ ब्राह्मण ११.४.४.८ का कथन है कि जो यज्ञ का न्यून है, वह उसका प्रजनन है और जो अतिरिक्त है, वह पशव्य है(यद्वै यज्ञस्य न्यूनं प्रजननमस्य तदथ यदतिरिक्तं पशव्यमस्य तदथ यत्संकसुकं श्रिया अस्य तत्) अथर्ववेद १५.१५.८ के अनुसार जो प्रिय नामक प्राण है, उसकी पशव: संज्ञा है, जो अपरिमित प्राण है, उसकी प्रजा संज्ञा है । जैमिनीय ब्राह्मण १.३२३ का कथन है(प्रस्तूयमानं साम प्रजाकामो ऽभ्युद्गायेद् विहृते प्रस्तावे क्षत्रकामः। प्रतिह्रियमाणम् एव पशुकामो ऽभ्युद्गायेत्। निधनम् एव स्वरम् उपयन् ब्रह्मवर्चसं ध्यायेत।) कि जो कुछ वाक् द्वारा करता है, वह प्रजा है और जो ऋचा का गान करता है, वह पशु हैं । शांखायन ब्राह्मण ११.६ का कथन है कि यज्ञ में तीन काम(कामनाएं) ही होते हैं । जो यज्ञ का सम्पन्न होता है, वह स्वर्ग्य होता है, जो न्यून होता है, वह अन्नाद्य होता है और जो अतिरिक्त होता है, वह प्रजनन के लिए होता है('यद्वै यज्ञस्य संपन्नं तत्स्वर्ग्यं यन्न्यूनं तदन्नाद्यं यदतिरिक्तं तत्प्रजात्यै ।') । ऐतरेय आरण्यक का कथन है कि 'अतिरिक्तं वै पुंसो, न्यूनं स्त्रियै' । यह संकेत करता है कि न्यून स्थित प्रकृति के लिए है । तैत्तिरीय संहिता २.५.१०.२(?) का कथन है कि इड यजन से पशुओं का अवरुन्धन होता है जबकि बर्हि यजन से प्रजा का । तैत्तिरीय संहिता २.६.७.६ का कथन है कि प्रजा उत्तरा देवयज्या है, पशु भूयः हविष्करण हैं । तैत्तिरीय संहिता ५.३.६.१ का कथन है कि तन्तु इति प्रजा हैं, पृतनाषाडिति पशू हैं, रेवदिति ओषधी हैं । तैत्तिरीय संहिता ५.४.६.६ का कथन है कि प्रजा पशुओं का सुम्न हैं । अथर्ववेद १०.१०.२९ के अनुसार जैसे बीज उपयुक्त योनि को पाकर रोहण करता है, ऐसे ही हमारे अंदर प्रजा व पशुओं का रोहण होना चाहिए । तैत्तिरीय संहिता ५.४.५.३ का कथन है कि प्रजा वर्च: है जबकि पशव: वरिव: ( वरिवस्या भक्ति रहस्य पुस्तक लोक में प्रसिद्ध है ) । अथर्ववेद १६.८ सूक्त के मन्त्रों की टेक "यज्ञोऽस्माकं पशवोऽस्माकं प्रजाऽस्माकं" है । इसी सूक्त में विभिन्न देवताओं द्वारा निर्मित पाशों को खोलने का भी वर्णन है । यह विलक्षण है कि जहां पौराणिक वर्णन में पशु और पाश का गहरा सम्बन्ध दिखाया गया है, वहीं वैदिक साहित्य में केवल यही एक सूक्त है जहां पशु के साथ पाश का सम्बन्ध मिलता है । प्रजा का अर्थ प्रज्ञा हो सकता है ।

पशु व गार्हपत्य अग्नि :

तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.६.२ में आख्यान है कि देवों ने अपना धन अग्नि को सौंप दिया । अग्नि ने वह धन पशु, आपः व आदित्य में रख दिया । जो पवमान अग्नि है, वह पशु है, जो पावक अग्नि है वह आपः है और जो शुचि अग्नि है, वह आदित्य का रूप है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.१.२५ में शंस्य/आहवनीय अग्नि से प्रार्थना की गई है कि 'शंस्य पशून्मे गोपाय द्विपादो ये चतुष्पद: ।' तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.४.६ में प्रश्न उठाया गया है कि प्रजा व पशु की प्राप्ति हेतु मनु पहले गार्हपत्य अग्नि का आधान करे, या अन्वाहार्यपचन का या आहवनीय का? मनु - पुत्री इडा द्वारा आधान इसी क्रम में कराया गया जिससे प्रजा व पशुओं की प्राप्ति हो(गार्हपत्यमग्र आदधात् । गार्हपत्यं वा अनु प्रजाः पशवः प्रजायन्ते । गार्हपत्येनैवास्मै प्रजां पशून्प्राजनयत् । अथान्वाहार्यपचनम् । तिर्यङ्ङिव वा अयं लोकः । अस्मिन्नेव तेन लोके प्रत्यतिष्ठत् । अथाहवनीयम् । तेनैव सुवर्गं लोकमभ्यजयत् ) । कहा गया है कि गार्हपत्य के अनुदिश प्रजा व पशुओं का प्रजनन होता है । अथर्ववेद १९.३१.२ में गार्हपत्य अग्नि के पशुओं का अधिपति होने का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.४.७.७ का कथन है कि जो पशु अग्नियों के बीच में स्थित हो जाते हैं, वह मानो इस प्रकार है जैसे देवों की संसद में आ जाना । तैत्तिरीय संहिता १.७.६.७ का कथन है कि यदि कोई आहिताग्नि/दीक्षित होकर भी असभा वाला है तो उसने विराट् को प्राप्त नहीं किया है । पशु ही ब्राह्मण की सभा हैं ।अथर्ववेद १९.४८.५ का कथन है कि "पशून् ये सर्वान् रक्षन्ति ते न आत्मसु जाग्रति ते नः पशुष जाग्रति ।" तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.४.३ का कथन है कि रात्रि आग्नेयी है, पशव: आग्नेय हैं, रात्रि को गार्हपत्य में स्थापित करता है । इससे पशुओं की प्राप्ति होती है । इन कथनों से ऐसा प्रतीत होता है कि यज्ञ में यजमान को रात्रि में गार्हपत्य के निकट वास करके जागते रह कर पशुओं की रक्षा करनी पडती है ।

पशु, त्वष्टा, पूषा व सविता :

 वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से त्वष्टा को पशुओं का रूप - निर्माता कहा गया है ("सोमेन पूर्णं कलशं बिभर्षि त्वष्टा रूपाणां जनिता पशूनाम्" - अथर्ववेद ९.४.६) । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.५.७.४ का कथन है कि "त्वष्टा पशूनां मिथुनानां रूपकृद्रूपपति: । रूपेणास्मिन् यज्ञे यजमानाय पशून्ददातु स्वाहा ।" देव त्वष्टर्वसु रम की व्याख्या में शतपथ ब्राह्मण ३.७.३.११ का कथन है कि "त्वष्टा वै पशूनामीष्टे । पशवो वसु ।" तैत्तिरीय संहिता १.६.४.४ का कथन है कि " त्वष्टुरहं देवयज्यया पशूनां रूपं पुषेयम् ।" शांखायन ब्राह्मण १९.६ का कथन है कि त्वाष्ट्र रेतः सिंचन है । पत्नियों में रेत का सेचन किया जाता है । पूषण्वान् करम्भं की व्याख्या में ऐतरेय ब्राह्मण २.२४ का कथन है कि पशु पूषा हैं और करम्भ अन्न है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१.२.९-१० का कथन है कि रेवती नक्षत्र हमारे लिए क्षुद्र पशुओं( अजा, अवि आदि ) की रक्षा करे और रेवती नक्षत्र का अधिपति पूषा हमारे लिए गायों और अश्वों को लाए ( "क्षुद्रान्पशून्रक्षतु रेवती नः । गावो नो अश्वां अन्वेतु पूषा । अन्नं रक्षन्तौ बहुधा विरूपम् ।") । सविता के संदर्भ में कहा गया है कि "अथास्मभ्यं सविता सर्वताता । दिवे दिवे आसुवा भूरि पश्व: ।" - तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.१५.१

पशु व रेवती :

*रेवतीष वामदेव्येन पशुकाम: स्तुवीत । आपो वै रेवत्य: पशवो वामदेव्यं अद्भ्य एवास्मै पशून् प्रजनयति - ताण्ड्य ब्राह्मण ७.९.२०( यहां रेवतीष वामदेव्यं एक साम विशेष का नाम है )

*पयो वै रेवतयः । पशव: पञ्चमम् अह: । - जैमिनीय ब्राह्मण ३.१४५(पृष्ठ्य षडह के पंचम अह को शक्वर अह कहते हैं । षष्ठम अह को रैवत अह कहते हैं । इस अह में गाया जाने वाला साम रेवतीष वारवन्तीयम् है ।)

*पशवो वै रेवतयः । आत्मा मध्यंदिनः । - जैमिनीय ब्राह्मण ३.१४४

*आपः व मित्रावरुणौ से रेवतयः पशुओं का जन्म - जैमिनीय ब्राह्मण १.१४०

*सप्तपदा शक्वरी पशव: शक्वरी सप्त ग्राम्या: पशव: सप्तारण्या: सप्त छन्दांसि उभयस्यावरुद्धयै । - तैत्तिरीय संहिता ६.१.८.१

*रेवदसि ओषधीभ्यस्त्वौषधीर्जिन्वेत्याह ओषधीष्वेव पशून्प्रतिष्ठापयति - तैत्तिरीय संहिता ३.५.२.४

*रेवती रमध्वमित्याह पशवो वै रेवती: पशूनेवाऽऽत्मन्रमयत - तैत्तिरीय संहिता १.५.८.२

*क्षुद्रान्पशून्रक्षतु रेवती नः । गावो नो अश्वां अन्वेतु पूषा । अन्नं रक्षन्तौ बहुधा विरूपम् ।" - तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१.२.९

 

पशु व ऋषि :

 ऐसा अनुमान है कि जमदग्नि ऋषि का सम्बन्ध अज अवस्था से, सूर्य की अनुदित अवस्था से है । जमदग्नि का अर्थ है अग्नि को यमित करने वाला । जमदग्नि की पत्नी का नाम रेणुका है । रेणुका से अर्थ धूल से होता है । यह कोई ज्योति रूपी धूल हो सकती है । रेणुका पतिव्रता नहीं है, वह कार्तवीर्य अर्जुन के प्रति आकृष्ट हो जाती है । अतः जमदग्नि उसके वध का आदेश देते हैं । इसके पश्चात् वसिष्ठ ऋषि की स्थिति अवि से, सूर्य के उदय से सम्बन्धित हो सकती है । वसिष्ठ ऋषि ने सन्ध्या का परिष्कार कर उसे अपनी पत्नी अरुन्धती के रूप में ग्रहण किया गया है । अरुन्धती का अर्थ होता है जो अरुण को धारण करती है । ऐसी स्थिति सूर्योदय पर होती है । अरुन्धती पूर्णतः पतिव्रता है । वसिष्ठ से अगली स्थिति गोतम ऋषि की है जो गौ से, मध्याह्न काल से सम्बन्धित हो सकता है । इससे अगली स्थिति विश्वामित्र की है जो अश्व से सम्बन्धित हो सकता है ।

No Soma yaaga can be performed without sacrifice of animals. This apparent anomaly of Hindu religion, where there is so much stress on non – violence, requires proper understanding of  the meaning of an animal. All beings of this world, whether moving or nonmoving, have been given a common name animal. When non – moving beings are called the animals, it may mean our impressions of past lives which are not active at present. One has to activate these. Then these will provide us the knowledge of past and present. They will speak for us.

     Vedic view of animal can be guessed from an anecdote. Fire fled from gods and hid itself within animals. The creator god was able to see it in animals like goat, sheep, cow, horse and man. As creator was able to see, therefore these were given the name Pashu(pash root in Sanskrit – to see), the animal. When this anecdote talks of disappearance of fire in animals, one has to understand it’s deeper meaning on the basis of the fact that fire has an upward tendency, while the animals have a horizontal movement. So, when this anecdote talks of disappearance of fire in animals, it may mean that the upward motion of our consciousness has got transformed into horizontal movement. Now, there are two solution. One, let us totally kill the horizontal movement. The other is to use properly the horizontal movement also. Vedic literature illustrates both the approaches. Man as an animal has been called having two legs. These two legs move in upward and downward directions. Other animals are stated to have four legs which move in 4 horizontal directions. Two – legged animal controls the four – legged animal(animals fear of a staff). When one thinks in terms of human body, this anecdote may be transformed in the way that the upward movement of semen is facing some obstacle and is getting scattered in the body and creating animal tendencies. Then question arises that what will be the form of the animal tendency – whether it will take the shape of a goat or cow or horse or a lion?

     Vedic literature states that goat was born out of the face of creator god, sheep from chest, cow from stomach, and horse from feet. It seems strange that goat has been given so much importance as to have been born out of face or the creator. This riddle can be solved on basis of the fact that a goat can be considered as the state when sun has not arisen. This is a state of hotness only, thermal energy. This is called penance, the tapas. This energy is used for development of underdeveloped parts in the body. It is said that the sense organs visible on the face are available in other parts of the body in underdeveloped stage. For example, the nipples on the chest, or the knees in the feet are stated to be underdeveloped states of eyes. One statement compares this state with a chisel used for digging the earth. Sheep is supposed to represent the rising state of sun. This state probably represents the state when one has just become conscious of what actually he requires in the world. The sun of knowledge has just dawned upon him. Cow is supposed to be the fully grown state of sun. Cow has been stated to have born out of stomach of the creator. Stomach receives food from outside world and converts it into energy for the whole body. It also stores the energy. In the same way a cow receives the energy from outside world and conserves it through resonance, not allowing it to decay, by the power of vedic resonance called Omkaara. A horse is supposed to be the setting stage of sun. It may probably represent the withdrawl of consciousness from our senses. This may be equivalent to Pratyaahaara in eightfold yoga. A being in the womb of the mother has also been stated to draw nourishment from the body of the mother. Thus this is also equivalent to Pratihaara devotion. And a man is considered as the sunset stage. This sunset stage has been stated to control all other 4 stages. This is like bone marrow in the body which controls all the functions of the body. If one keeps J.A. Gowan’s concept of existence of symmetry in gross matter as charge etc., then this last devotion can be considered as most symmetric state. The last but one may be considered as the state whose symmetry has been compensated by the energy of sun.

     A goat has been stated to move with it’s mouth upward. A sheep moves with it’s mouth downward, as if digging the earth. This has been explained by the fact that the inner consciousness called Udaana controls the outer or earthly consciousness.

     Vedic literature classfies animals mainly under two categories – forest animals and village animals. These animals are further classified on the basis whether they have inward tendency or outward tendency. When they have inward tendency, they can become the carrier to take one to heaven.

     Animals have been stated to move on the path of inner progress very slowly. Perhaps they can never reach heaven. They have to remain content with progress in this world only. They can provide us joy. Animals have been connected with praana and apaana. But they lack vyaana which only sun can introduce. Sun’s spritual progress is completed in the present only, while animal may complete it’s progress in past and present.

     Regarding the killing of animals in Soma yaaga, the animal is first tied to a post situated in the far east in yaaga. The animal can be killed only after this step. The post called yuupa represents sun. The tying of animal to the post is symbolic of the conversion of  horizontal movement of the animal into upward movement due to the introduction of sun in it. This step can itself be considered as the death of the animal tendency.

Pashu and Rishi : It is a guess that sage Jamadagni is associated with the state of goat, the state before sunrise. The name of her wife is Renukaa, meaning dust, symbolizing some light. She is not chaste, therefore the sage orders to kill her. The killing of Jamadagni by Kaartaveerya Arjuna may mean that the state of Jamadagni may be able to milk the cow for himself, but he is destroyed when this benefit is extended to lower self, to action. The next state is that of sage Vashishtha. This may be the state of a sheep, the state of rising sun. Wife of Vashishtha is Arundhatee, who is chaste to her husband. Vashishtha has obtained her by purification of earlier states Sandhyaa etc. The state of cow may be represented by sage Gotama. The state of horse may be represented by sage Vishvaamitra.

 

वैदिक संदर्भाः