पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Goajaka  - Chandrabhaanu)

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Goajaka - Gopa  ( words like Gokarna, Gokula, Gotra, Godaavari, Gopa etc)

Gopa - Gomati ( Gopaala, Gopaalaka, Gopi, Gobhila, Gomati etc.)

Gomati - Govardhana ( Gomukha, Golaka, Goloka, Govardhana etc. )

Govardhana - Gau  ( Govinda, Gau/cow etc.)

Gau - Gautama (Gau / cow etc. )

Gautama - Gauri  ( Gautama, Gautami, Gauramukha, Gauri etc.)

Gauri - Grahana  (Granthi / knot, Graha/planet, Grahana / eclipse etc.)

Grahee - Ghantaanaada  (Graama / village / note, Graamani, Graaha / corcodile, Ghata / pitcher, Ghatotkacha, Ghantaa etc.)

Ghantaanaada - Ghorakhanaka  (Ghrita / butter, Ghritaachi etc. )

Ghosha - Chakra  (Ghosha / sound, Chakra / cycle etc. )

Chakra - Chanda ( Chakrapaani, Chakravaak, Chakravarti, Chakshu / eye, Chanda etc.)

Chanda - Chandikaa (Chanda / harsh, Chanda - Munda, Chandaala, Chandikaa etc.)

Chandikaa - Chaturdashi (Chandi / Chandee, Chatuh, Chaturdashi etc.)

Chaturdashi - Chandra ( Chaturvyuha, Chandana / sandal, Chandra / moon etc. )

Chandra - Chandrabhaanu ( Chandrakaanta, Chandragupta, Chandraprabha, Chandrabhaagaa etc. )

 

 

 

 

 

 

 

Story of Gokarna, the brother of Dhundhukaaree

Glory of Shrimad Bhaagvatam

The story of Dhundhukari and Gokarna

-         Radha Gupta

There was a Brahmin named Aatmadeva. His wife was Dhundhuli. They had no child, so Aatmadeva was worried for not satisfying his pitris. One day, he went in a forest where he saw a yogi. Aatmadeva shared his sorrow with him  and at last the yogi gave him a fruit to attain a child. Aatmadeva gave that fruit to his wife and went somewhere. Dhundhuli, arguing a lot in her mind, did not eat that fruit and gave it to a cow. Dhundhuli planned to take her sister’s child after birth, so she made a dramatic act as if she was pregnant. At proper time, Dhundhuli’s sister delivered a child and gave him to Dhundhuli. In the meantime, cow also delivered a human child. Aatmadeva was totally in dark of her wife’s plan, so getting two sons, he was very happy and named them as Dhundhukaari and Goarna. When the children were grown – up, Dhundhukaari was very wicked but Gokarna was wise. Suffering from the bad conduct of Dhundhukaari, Aatmadeva went in the forest and prayed God while mother Dhundhuli also died. Dhundhukaari lived with prostitutes but was killed by them. He became a Ghost and suffered a lot. At last, he came to Gokarna for help. Gokarna contemplated how to help his brother and arranged a distinguished lecture of Shrimad Bhaagawata. Hearing that lecture, Dhundhukaari was liberated.

      The story is totally symbolic. It shows that every human being is bound with his sanskaras/impressions named Pitris. These sanskaras/impressions carry him towards good or bad deeds unwillingly. One can overcome his impressions only by acquiring good qualities within.

      Whenever a great desire evolves to acquire qualities and a person thinks over it seriously, he comes in contact with his inner self. This inner self directs him accordingly but the nourishment of that direction depends on the quality of mind and intellect. Pure mind and intellect accept and follow that direction. So such person is equipped with appropriate knowledge,while the impure mind and intellect neither accept nor follow. As a result, such person being ignorant lives in worldly pleasures and ultimately suffers in life. In long run, this suffering carries him to a saint for help. Holy persons always guide the sufferer and at last by following the sacred path, he(the sufferer) gets peace and enlightenment.

            In this story, Aatmadeva represents a person craving for qualities. His wife Dhundhuli symbolizes impure mind and intellect. Yogi or sanyasi is the person’s inner self and the fruit given by him is the direction to  attain qualities. Cow symbolizes pure mind and intellect, her son Gokarna symbolizes knowledge and Dhundhukari symbolizes the involvement in worldly pleasures. Teaching of Shrimad Bhaagawata symbolizes sacred path for enlightenment

गोकर्ण

धुन्धुकारी को प्रेत योनि की प्राप्ति एवं उससे उद्धार - एक विवेचन

- राधा गुप्ता

कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है - तुङ्गभद्रा नदी के तट पर बसे हुए अनुपम नगर में आत्मदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था उसकी पत्नी थी - धुन्धुली सन्तान होने से पितरों का तर्पण कर पाने के कारण आत्मदेव बहुत चिन्तातुर रहता था अतः एक दिन दु:खी होकर वन में चला गया वहां उसे एक योगनिष्ठ संन्यासी के दर्शन हुए आत्मदेव ने संन्यासी के समक्ष सन्तान अप्राप्ति रूप अपना दुःख निवेदन किया संन्यासी ने प्रारब्ध की प्रबलता तथा विधाता के लिखे लेख की प्रबलता बतलाते हुए सात जन्मों तक सन्तान होने का संकेत करते हुए आत्मदेव को सन्तान मोह छोडने का परामर्श दिया परन्तु आत्मदेव संन्यासी से सन्तान प्रदान रूप अनुग्रह के लिए आग्रह करने लगा उसके अति आग्रह को देखते हुए संन्यासी ने उसे एक फल प्रदान किया जो पत्नी द्वारा खा लेने तथा यम - नियम पूर्वक रहने पर उन्हें निश्चित रूप से सन्तान की प्राप्ति कराने वाला था आत्मदेव ने लौटकर वह फल पत्नी धुन्धुली को खाने के लिए दे दिया परन्तु धुन्धुली ने अपने मन में अनेक कुतर्क करते हुए उस फल को नहीं खाया तथा अपनी बहिन की सम्मति से चुपचाप उस फल को गौ को खिला दिया धुन्धुली की बहिन उस समय गर्भवती थी । अतः उसने धुन्धुली के साथ योजना बनाकर पुत्र उत्पन्न होने पर अपने पुत्र को धुन्धुली को दे दिया आत्मदेव दोनों बहनों की उस योजना से सर्वथा अनभिज्ञ था, अतः उसने उस पुत्र को अपना ही पुत्र समझा धुन्धुली ने पुत्र का नाम धुन्धुकारी रखा

          फल खाने के कारण गौ से भी एक सुन्दर मनुष्याकार बच्चा उत्पन्न हुआ इससे आत्मदेव अति प्रसन्न हुआ और उसने उस गौ से उत्पन्न पुत्र का नाम गोकर्ण रखा समय व्यतीत होने के साथ - साथ दोनों पुत्र बडे हुए धुन्धुकारी अति दुष्ट निकला तथा गोकर्ण अत्यन्त ज्ञानी आत्मदेव धुन्धुकारी के उत्पातों से अत्यन्त दु:खी रहने लगा और एक दिन ज्ञानी गोकर्ण के उपदेश से छोडकर वन में चला गया वहां भगवद् - आराधना से उसने भगवान् को प्राप्त किया धुन्धुकारी वेश्याओं के साथ रहकर भोगों में डूब गया और एक दिन उन्हीं के द्वारा मार डाला गया अपने कुकर्मों के फलस्वरूप वह प्रेत बन गया और भूख - प्यास से अत्यन्त व्याकुल रहने लगा एक दिन व्याकुल धुन्धुकारी अपने भाई गोकर्ण के पास पहुंचा और संकेत रूप में अपनी व्यथा सुनाकर उससे सहायता की याचना की गोकर्ण धुन्धुकारी के दुष्कर्मों को पहले से ही जानते थे, इसलिए धुन्धुकारी की मुक्ति के लिए गया श्राद्ध पहले ही कर चुके थे परन्तु इस समय प्रेत रूप में धुन्धुकारी को पाकर गया श्राद्ध की निष्फलता देख उन्होंने पुनः विचार विमर्श किया अन्त में स्वयं सूर्य नारायण ने गोकर्ण को निर्देश किया कि श्रीमद्भागवत का पारायण कीजिए उसका श्रवण मनन करने से ही मुक्ति होगी श्रीमद् भागवत का पारायण हुआ गोकर्ण वक्ता बने और धुन्धुकारी ने वायु रूप होने के कारण एक सात गाठों वाले बांस के भीतर बैठकर कथा का श्रवण मनन किया सात दिनों में एक - एक करके बांस की सातों गाठे गई धुन्धुकारी भागवत के श्रवण मनन से सात दिनों में सात गाठे फोडकर, पवित्र होकर, प्रेत योनि से मुक्त होकर भगवान् के वैकुण्ठ धाम में चला गया

          अब हम कथा के प्रतीकों को समझने का प्रयास करे -

* तुङ्गभद्रा नदी हमारे भीतर प्रवाहित शुद्ध चैतन्य रूपी नदी है तथा नदी के तट पर बसा हुआ अनुपम नगर यह मनुष्य शरीर ही है आत्मदेव हमारा आत्मा(जीवात्मा या self  ) है अर्थात् मनुष्य स्वयं आत्मदेव है

* आत्मदेव की पत्नी धुन्धुली हमारी धुन्धली(अशुद्ध) मन - बुद्धि की प्रतीक है धुन्धुली शब्द वास्तव में धुधली से बनाया गया है धुधली अर्थात् अस्पष्ट - ाफú दिखाई देना हमारे ऐसे मन - बुद्धि जिसके ऊपर अशुद्धता का, अज्ञानता का आवरण ढा होने से उसे क्या सत् है, क्या असत् है - कुछ भी स्पष्ट दिखाई नहीं देता

* आत्मदेव की सन्तान प्राप्ति की इच्छा मनुष्य की गुण - प्राप्ति की इच्छा का प्रतीक है

* पितर हमारे संस्कार हैं मनुष्य जो भी अच्छा अथवा बुरा कार्य करता है तथा उस कार्य के पीछे जो भी अच्छा या बुरा भाव होता है, उस सबकी छाप(impression) एक गुप्त या गुह्य भाषा(code language) में मनुष्य के चित्त में अंकित हो जाती है चित्त में अंकित उन छापों को ही संस्कार कहते हैं इन संस्कारों के अनुसार पुनः हमारे सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक व्यापार(कर्म) होते हैं इन व्यापारों की छाप पुनः हमारे चित्त पर पडती है अर्थात् इन व्यापारों से पुनः संस्कार बनते हैं इस प्रकार यह कभी समाप्त होने वाली शृङ्खला चलती रहती है पौराणिक साहित्य में ये संस्कार ही पितर कहलाते हैं मनुष्य कर्म - बन्धन से तब तक मुक्त नहीं हो सकता जब तक इन पितर रूपी संस्कारों से मुक्त हो जाए इन संस्कारों से मुक्त होने का उपाय है - सन्तान प्राप्ति रूपी गुणों की प्राप्ति

* आत्मदेव का वन में जाना मनुष्य का अन्तर्मुखी होना है

*वन में मिलने वाला योगनिष्ठ संन्यासी अन्तरात्मा का प्रतीक है अन्तर्मुखी होने पर ही अन्तरात्मा से मिलन होता है, जो हमें हमारी आवश्यकता के अनुसार यथोचित निर्देश देता है

* हमारा अन्तरात्मा हमारी मन - बुद्धि की गुणवत्ता अर्थात् अशुद्धता को भलीभांति जानता है अशुद्ध मन - बुद्धि से सद्गुणों की प्राप्ति असम्भव है इसी तथ्य को कहानी में संन्यासी द्वारा प्रारब्ध की प्रबलता तथा विधाता का लेख कहकर इंगित किया गया है

* संन्यासी द्वारा दिया हुआ फल अन्तरात्मा द्वारा दिए गए यथार्थ दिशा - निर्देश को इंगित करता है, जिसको धुन्धुली रूपी हमारी अशुद्ध मन - बुद्धि स्वीकार नहीं कर पाती हैं

* अशुद्ध मन - बुद्धि की बहिर्मुखी चेतना या वृत्ति को ही धुन्धुली की हन कहा गया है यह बहिर्मुखी चेतना ही धुन्धुकारी को उत्पन्न करती है धुन्धुकारी( धुन्धु + कारी) का अर्थ है - धुन्ध अर्थात् अशुभ कर्म या दुष्कर्म करने वाला

* हमारी अन्तर्मुखी चेतना या वृत्ति ही गौ है हमारे अन्तरात्मा अर्थात् संन्यासी द्वारा निर्दिष्ट दिशा निर्देश (फल) को बहिर्मुखी व्यापार वाली अशुद्ध मन - बुद्धि (धुन्धुली) तो ग्रहण या स्वीकार नहीं करती परन्तु उसी दिशा - निर्देश को अन्तर्मुखी चेतना(गौ) सहज रूप में ग्रहण भी करती है और उस पर ध्यान भी देती है यही गोकर्ण की उत्पत्ति है गोकर्ण में दो शब्द हैं - गो और कर्ण गौ का अर्थ है अन्तर्मुखी चेतना और कर्ण का अर्थ है - कान देना या ध्यान देना अथवा सुनना अन्तरात्मा के दिशा - निर्देश को सुनकर अथवा उस पर ध्यान देकर तदनुसार ज्ञानयुक्त व्यवहार(सत्कर्म) करने के कारण ही गोकर्ण को कहानी में ज्ञानी कहा गया है ऐसी ज्ञानयुक्त चेतना अर्थात् गोकर्ण से ही निर्देशित होकर मनुष्य न्मार्ग की ओर अग्रसर होकर अपने जीवन के आत्यन्तिक लक्ष्य को प्राप्त करता है इसी तथ्य को कहानी में आत्मदेव का गोकर्ण से उपदेश प्राप्त करके वन में जाना तथा वहां भगवत् आराधना द्वारा भगवान् को प्राप्त करना कहा गया है

* बहिर्मुखी चेतना से धुन्धुकारी उत्पन्न होता है तथा अन्तर्मुखी चेतना से गोकर्ण उत्पन्न होता है दोनों की उत्पत्ति चेतना से ही होने के कारण उन्हें कहानी में भ्राता कहा गया है

*पांचों इन्द्रियां - कान, त्वचा, आंख, जिह्वा तथा नासिका ही पांच वेश्याएं हैं इनके विषयों - शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध में डूबना ही धुन्धुकारी का वेश्याओं में रत होना है विषयों में अति आसक्ति मनुष्य को मार डालती है तथा की ओर ले जाती है यही धुन्धुकारी का मरकर प्रेत बनना है

*दुष्कर्मों से प्राप्त दुःख ही मनुष्य को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं यही धुन्धुकारी का गोकर्ण के पास जाना है

*कथा में कहा गया है कि गोकर्ण ने धुन्धुकारी की प्रेत योनि से मुक्ति हेतु 'गया श्राद्ध' किया परन्तु गया श्राद्ध से भी धुन्धुकारी को प्रेतत्व से मुक्ति नहीं मिली यहां हमें पहले 'गया' तथा 'श्राद्ध' के आध्यात्मिक तात्पर्य को समझना होगा '' उन प्राणों को कहते हैं जो हमारे विज्ञानमय कोश में रहते हैं अतः '' नामक प्राणों का आधार स्थान विज्ञानमय कोश ही 'गया' है मनोमय कोश से ऊपर विज्ञानमय कोश हमारी वह स्थिति है जिसमें हमारे मन - बुद्धि की समस्त कलुषताएं समाप्त होकर वे अत्यन्त शुद्ध, निर्मल, पवित्र, सात्विक, शान्त हो जाते हैं अतः अत्यन्त सरल शब्दों में कहें तो ऐसा कह सकते हैं कि मन - बुद्धि की अत्यन्त निर्मल स्थिति ही 'गया' है

          'श्राद्ध' शब्द श्रद्धा से बना है और श्रद्धा की व्युत्पत्ति शृत् +धा से हुई है शृत् एक अव्यय है जो 'धा' क्रिया में विशिष्टता लाता है और 'धा' का अर्थ है - धारण करना अतः श्रद्धा का अर्थ हुआ  - विशिष्ट को, गुणों को धारण करना इस प्रकार गुणों का संधारण ही 'श्राद्ध' है मन - बुद्धि की निर्मल, पावन स्थिति तथा गुणों का संधारण 'गया - श्राद्ध' है

          गोकर्ण द्वारा निष्पन्न गया श्राद्ध से धुन्धुमार प्रेतत्व से मुक्त नहीं हुआ यह कथन इस तथ्य को इंगित करता है कि धन के हस्तान्तरण की भांति मन - बुद्धि की शुद्धता तथा गुणों के संधारण का हस्तान्तरण नहीं हो सकता प्रत्येक मनुष्य को प्रेतत्व अर्थात् से मुक्ति के लिए स्वयं ही प्रयत्न करना पडेगा एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को मार्गदर्शन तो दे सकता है परन्तु मन - बुद्धि की शुद्धता, पवित्रता नहीं दे सकता

*कथा में कहा गया है कि धुन्धुमार की प्रेतत्व से मुक्ति के लिए गोकर्ण उपाय के विषय में चिन्तना तथा पूछता करने लगा अन्त में स्वयं सूर्य नारायण ने उन्हें श्रीमद् भागवत का पारायण करने का निर्देश किया वास्तव में सूर्य नारायण मनुष्य का शुद्ध - बुद्ध आत्मा ही है अन्तर्मुखी चेतना से युक्त सात्विक मनुष्य यथासमय अपने ही शुद्ध बुद्ध आत्मा से मार्गदर्शन प्राप्त करता है

*कथा में कहा गया है कि प्रेतत्व को प्राप्त धुन्धुकारी भागवत श्रवण हेतु सात गाठों वाले एक बांस में प्रविष्ट हो गया बांस की सात गाठे हमारी पांचों इन्द्रियों, छठे मन तथा सातवी बुद्धि पर लगी हुई अज्ञान की, अशुद्धि की गाठे हैं भागवत के श्रवण - मनन से पूर्व धुन्धुकारी पांचों इन्द्रियों, छठे मन तथा सातवी बुद्धि नामक सातों स्तरों पर अशुद्धि तथा अज्ञान से युक्त था यही उसका सात गाठों वाले बांस में बैठना है भागवत के श्रवण - मनन के पश्चात् इन सातों स्तरों पर वह अशुद्धि, अज्ञान से मुक्त हो गया - यही बांस की सातों गाठों का फना है

*अन्त में धुन्धुकारी भगवान् के वैकुण्ठधाम को प्राप्त हुआ वैकुण्ठधाम का अर्थ है - कुण्ठा रहित धाम अर्थात् कुण्ठा रहित स्थिति कुण्ठा का अर्थ है - ूंठता, जडता, मन्दत मनुष्य - चेतना को प्रत्येक स्तर पर अज्ञानजन्य जडता से मुक्त होकर सर्वथा ज्ञानजन्य जाग्रत अवस्था को प्राप्त हो जाना ही वैकुण्ठधाम को प्राप्त होना है इसी स्थिति में अर्थात् जाग्रति(awareness) में वह भगवान् के दर्शन कर पाता है अर्थात् दृश्यमान जगत् के रूप में सर्वत्र व्याप्त परम सूक्ष्म चेतन सत्ता को पहचान पाता है

This page was last updated on 07/13/10.