पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Phalabhooti  to Braahmi  )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar 

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Phalabhooti - Badari  (Phalgu, Phaalguna,  Phena, Baka, Bakula, Badavaa, Badavaanala, Badari etc.)

Badheera - Barbara( Bandi, Bandha / knot, Babhru, Barkari, Barbara etc.)

Barbara - Baladeva ( Barbari / Barbaree, Barhi, Barhishad, Barhishmati / Barhishmatee, Bala, Balakhaani, Baladeva etc.)

Baladevi - Balaahaka (Balabhadra, Balaraama, Balaa, Balaaka, Balaahaka etc.)

Bali - Bahu ( Bali, Bahu / multiple etc.)

Bahuputra - Baabhravya ( Bahuputra, Bahulaa, Baana, Baanaasura, Baadaraayana etc. )

Baala - Baashkali (Baala / child, Baalakhilya, Baali / Balee, Baashkala, Baashkali etc.)

Baaheeka - Bindurekhaa (Baahu / hand, Baahleeka, Bidaala, Bindu/point, Bindumati etc.)

Bindulaa - Budbuda (Bila / hole, Bilva, Bisa, Beeja / seed etc.)

Buddha - Brihat ( Buddha, Buddhi / intellect, Budha/mercury, Brihat / wide etc.)

Brihatee - Brihadraaja (  Brihati, Brihatsaama, Brihadashva, Brihadbala, Brihadratha etc.)

Brihadvana - Bradhna ( Brihaspati, Bodha etc.)

Brahma - Brahmadhaataa ( Brahma, Brahmcharya / celibacy, Brahmadatta etc. )

Brahmanaala - Brahmahatyaa (Brahmaraakshasa, Brahmarshi, Brahmaloka, Brahmashira , Brahmahatyaa etc. )

Brahmaa- Brahmaa  (  Brahmaa etc. )

Brahmaa - Braahmana  (Brahmaani, Brahmaanda / universe, Brahmaavarta, Braahmana etc. )

Braahmana - Braahmi ( Braahmana, Braahmi / Braahmee etc.)

 

 

ESOTERIC ASPECTS OF EGO THROUGH STORY OF BALI AND VAMANA

                                                                                                                                       -         Radha Gupta

In the eighth canto of Bhaagavata puraana, there is a famous story of Bali and Vaamana. This story is related with ego and describes all the aspects of it’s origination and liberation.

      The story says that a person forgets his real self in the long journey of births and deaths. He thinks himself a body and in the body consciousness he remains attached with his roles, thinking himself as the real actor. This transformation from soul to body brings him pain and he gets hurt again and again. This attachment to a wrong image of himself is called ego symbolized as Bali.

      Amongst all vices, ego is very powerful, as ego is closely connected with the deep rooted impressions of the past lives in the subconscious mind. These impressions play very important role in affecting the present thoughts lying in conscious mind. As a result, a person deeply indulges in body consciousness and it becomes very difficult to get rid of this ego.

      Ego is very harmful as all the divinity of personality disappears in it’s presence and a person feels void.

      The story says that the purity of mind never overcomes this vice. A strong approach is needed for this purpose. On the very first step of this approach, three qualities are required. First, a deep desire to realize his self. Second, living in harmony of body and self. Third, constant remembering of the self. These three qualities combined together make a person able in producing a new powerful thought of being a soul called as Vaamana.

      This thought appears very tiny in the beginning, but as soon as it strengthens, the whole process of feelings, attitude, actions, habit and perception changes. This change is so powerful that a transformation from body to soul takes place which weakens the impressions accumulated in subconscious mind.

      Now the thought of being a soul immerges, and if implemented properly, first ruins the castle of ego and at last ego itself is surrendered. These three steps of immersion, implementation and surrender are symbolized as the three steps of Vaamana.

      Surrender of ego does not mean it’s cease. It indicates it’s controlled situation. Previously, living in body consciousness a person was controlled by his ego, but now ego is totally controlled by him and a person starts living in bliss.

      A wonderful change also takes place on the impression level. Previously, the thoughts were controlled by body impressions, but now impressions are controlled by this beautiful thought that I am a pure, peaceful, powerful, happy, loveable and blissful being and every human being is like me.

First published : 11-11-2009AD(Maargasheersha krishna 9, Vikrama samvat 2066)

बलि - वामन की कथा के माध्यम से अहंकार की प्रबलता एवं अहंकार से मुक्त होने के उपाय का दिग्दर्शन

- राधा गुप्ता

श्रीमद्भागवत पुराण के अष्टम स्कन्ध में अध्याय १५ से २३ तक अध्यायों में बलि - वामन कथा विस्तार से वर्णित है

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

          एक बार देवासुर संग्राम में जब इन्द्र ने बलि को पराजित करके उसकी सम्पत्ति छीन ली और उसके प्राण भी ले लिए, तब भृगुनन्दन शुक्राचार्य ने उसे अपनी संजीवनी विद्या से जीवित कर दिया इस पर शुक्राचार्य के शिष्य बलि ने अपना सर्वस्व उनके चरणों पर ढा दिया और वह तन - मन से गुरु जी के साथ ही समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा करने लगा इससे प्रभावशाली भृगुवंशी ब्राह्मण उन पर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने स्वर्ग पर विजय प्राप्ति की इच्छा वाले बलि से विश्वजित् यज्ञ कराया यज्ञ से प्राप्त युद्ध सामग्री से सुज्जि होकर बलि ने इन्द्र पर ढा की परन्तु इन्द्र आदि सभी देवता अपने गुरु बृहस्पति के निर्देशानुसार स्वर्ग छोडकर पहले ही कहीं छिप गए अतः बलि ने स्वर्ग पर अधिकार करके तीनों लोकों को जीत लिया

          बलि के स्वर्ग पर अधिष्ठित हो जाने और देवताओं के भागकर छिप जाने से देवों की माता अदिति को बहुत दुःख हुआ और वे अनाथ सी हो गई बहुत दिनों के बाद जब प्रभावशाली कश्यप मुनि की समाधि ूटी और वे पत्नी अदिति के आश्रम पर आए, तब उन्होंने देखा कि तो वहां सुख - शान्ति है और किसी प्रकार का उत्साह या सजाव ही कश्यप द्वारा पूछने पर उदास अदिति ने देवों के स्वर्ग - च्युत होकर छिप जाने का वृत्तान्त बताते हुए जब कल्याण हेतु कोई उपाय बतलाने की प्रार्थना की तब कश्यप मुनि ने अदिति को पयोव्रत के अनुष्ठान का उपदेश दिया

          कश्यप जी के उपदेशानुसार अदिति ने पयोव्रत का अनुष्ठान किया उन्होंने अपने मन को सर्वात्मा पुरुषोत्तम के चिन्तन में लगा दिया प्रसन्न भगवान् ने अदिति को स्वयं पुत्र रूप में अवतरित होकर उसके अभिलषित कार्य को सम्पन्न करने का वचन दिया यथासमय भगवान् के प्रकट होने पर समस्त प्रकृति निर्मल हो गई भगवान् के चतुर्भुज स्वरूप को देखकर कश्यप और अदिति परम आनन्दित हुए परन्तु अभीष्ट कार्य की सिद्धि हेतु भगवान् ने कश्यप और अदिति के देखते - देखते वामन ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया वामन ब्रह्मचारी को सविता ने गायत्री का उपदेश किया, बृहस्पति ने यज्ञोपवीत, कश्यप ने मेला, पृथ्वी ने कृष्णमृगचर्म, चन्द्रमा ने दण्ड, माता अदिति ने कौपीन और कटिवस्त्र, द्यौ ने छत्र, ब्रह्मा जी ने कमण्डल, सप्तर्षियों ने कुश, सरस्वती ने अक्षमाला, यक्षराज कुबेर ने भिक्षापात्र और वती उमा ने भिक्षा दी इस प्रकार सम्मानित, सुज्जि हुए वामन भगवान् ने नर्मदा नदी के उत्तर तट पर स्थित बलि की उस यज्ञशाला में प्रवेश किया जिसमें बलि के भृगुवंशी ऋत्विज बलि का अश्वमेध यज्ञ करा रहे थे वामन भगवान् के तेज से सभी ऋत्विज, सदस्य और यजमान प्रभाहीन हो गए बलि ने वामन ब्रह्मचारी का स्वागत - सत्कार करके स्वयं को कृतकृत्य माना और उनकी किसी भी मां को पूरा करने का आश्वासन दिया

          वामन भगवान् ने बलि के धर्माचरण का अभिनन्दन करते हुए उनके गुरु शुक्राचार्य, भृगुवंशीय ब्राह्मणों तथा प्रह्लाद, हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष एवं विरोचन आदि पूर्वजों की प्रशंसा की और अपने पैरों से तीन पद पृथ्वी की मां की शुक्राचार्य जी भगवान् की इस लीला को जानते थे, इसलिए बलि ने जैसे ही तीन पद भूमि देने का संकल्प करने के लिए जलपात्र उठाया, शुक्राचार्य जी ने उन्हें रोकना चाहा और कहा कि ये विश्वव्यापक भगवान् दो ही पद में पृथ्वी और स्वर्ग को माप लेंगे तब तुम इनके तीसरे पद के संकल्प को पूरा नहीं कर सकोगे

          बलि ने शुक्राचार्य जी के वचनों का आदर नहीं किया , अतः शुक्राचार्य जी ने बलि को लक्ष्मी खो देने का शाप दे दिया बलि ने अपनी पत्नी विन्ध्यावली के सहयोग से वामन भगवान् के चरण खारे और तीन पद भूमि देने का संकल्प कर दिया वामन भगवान् ने विराट रूप होकर एक पद से पृथ्वी तथा दूसरे पद से स्वर्ग को माप लिया बलि के कुछ सेवकों ने स्वामी के प्रति अनुरा होने के कारण वामन भगवान् को मारना चाहा परन्तु विष्णु भगवान् के भेजे हुए पार्षद असुर सेना का ही संहार करने लगे अन्त में बलि ने शुक्राचार्य के शाप का स्मरण करके दैत्यों को युद्ध करने से रोक दिया और वे सब दैत्य सातल को चले गए इसी समय भगवान् विष्णु के आदेशानुसार पक्षिराज गरुड ने बलि को वरुण के पाश से बांध दिया और वामन भगवान् ने तीन पद भूमि देने की प्रतिज्ञा पूरी करने के कारण बलि को नरक में जाने का आदेश दिया

          बलि ने वामन भगवान् से तीसरा पद अपने सिर पर रखने के लिए प्रार्थना की और भक्तिभाव से उनकी स्तुति की इसी समय प्रह्लाद जी भी वहां पहुंचे और उन्होंने भी भगवान् को नमस्कार किया भगवान् ने मोहरहित हुए बलि की प्रशंसा करते हुए उन्हें सुतल लोक में रहने का आदेश दिया वरुण के पाश से मुक्त होकर बलि ने प्रह्लाद जी के साथ सुतल लोक की यात्रा की और वामन भगवान् स्वयं उनके प्रहरी(दुर्गपाल) बन गए भगवान् के आदेश से शुक्राचार्य जी ने बलि के अपूर्ण यज्ञ को पूर्ण किया ब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण लोक एवं लोकपालों के पद पर वामन भगवान् का अभिषेक करके इन्द्र को स्वर्ग का राज्य प्रदान किया

कथा की प्रतीकात्मकता

- बलि - मनुष्य में काम, क्रोध, मोह आदि जितने भी विकार विद्यमान हैं, उनमें सबसे प्रबल है - अहंकार प्रबलता के कारण ही अहंकार को यहां बलि कहकर इंगित किया गया है अहंकार का अर्थ है - अपने वास्तविक आत्म स्वरूप की स्मृति रहने के कारण अपनी विभिन्न भूमिकाओं, अपने विषय में निर्मित किए गए किसी स्वरूप, अपने किसी विचार अथवा अपनी किसी वस्तु के प्रति आसक्त हो जाना और फिर उस भूमिका, स्वरूप, विचार अथवा वस्तु को किसी भी बाह्य स्थिति - परिस्थिति से जरा सी भी चोट पडने पर स्वयं को ही चोट लगा हुआ अनुभव करना जिसे वर्तमान भाषा में ego-hurt कहा जाता है

          उदाहरण के लिए, जब मनुष्य एक पिता की भूमिका में होता है, तब पिता की भूमिका को भूमिका समझकर उसे ही अपना वास्तविक स्वरूप समझ लेता है और फिर उस भूमिका के प्रति आसक्त होने के कारण किसी भी बाह्य स्थिति में उस भूमिका को चोट पडते ही स्वयं को आहत महसूस करता है

          यही स्थिति अपने विषय में निर्मित किसी स्वरूप अथवा पद के साथ भी घटित होती है मनुष्य अपने विषय में निर्मित किए गए किसी स्वरूप(जैसे - मैं बहुत गंभीर हूं) अथवा डाक्टर, इंजीनियर आदि किसी पद के प्रति आसक्त होकर उसे ही अपना वास्तविक स्वरूप समझ लेता है और फिर उस स्वरूप अथवा पद के विषय में किसी के कुछ कह देने पर आहत अनुभव करने लगता है

          कभी - कभी मनुष्य अपने किसी विचार के प्रति ही आसक्त हो जाता है और फिर किसी अन्य विचार के प्रस्तुत होने एवं अपने विचार के अस्वीकृत हो जाने पर स्वयं को आहत अनुभव करता है

          स्थूल वस्तु के प्रति आसक्त होना और वस्तु के खो जाने पर आहत हो जाना अहंकार का सबसे स्थूल स्वरूप है

          कथा में कहा गया है कि इन्द्र द्वारा बलि के प्राण ले लिए जाने पर भी शुक्राचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या के द्वारा बलि को जीवित कर दिया प्रस्तुत कथन अहंकार के साथ चित्तगत संस्कार के प्रगाढ सम्बन्ध को सूचित करता है स्वयं के देहरूप होने (मैं देह हूं ) का जो प्रबल संस्कार मनुष्य के चित्त में पडा हुआ है - वही मनुष्य के मन में स्थित देहभाव(बलि ) को मरने नहीं देता और यदि कभी मनुष्य का शुद्ध मन(इन्द्र ) प्रयत्नपूर्वक इस देह - भाव से वियुक्त होकर आत्मभाव( मैं शुद्ध शान्तस्वरूप आत्मा हूं) से संयुक्त होता भी है, तब यही चित्त में संग्रहीत देहभाव का संस्कार अर्थात् शुक्राचार्य उसे पुनः जीवित कर देता है

          कथा में शुक्राचार्य को भृगु - नन्दन (भृगु का पुत्र ) कहा गया है भृगु का अर्थ है - कर्मफलों को भून देने वाला आत्म-ज्ञान ही मनुष्य के कर्मफलों को भूनता है परन्तु यही आत्मज्ञान शनैः - शनैः जन्मों - जन्मों की एक लम्बी यात्रा के कारण विस्मृत होकर देह - ज्ञान में रूपान्तरित हो जाता है अतः आत्मज्ञान रूप भृगु से देहज्ञान रूप शुक्राचार्य के उत्पन्न होने के कारण शुक्राचार्य को भृगु - नन्दन कहना उचित ही है वास्तव में शुक्राचार्य के साथ भृगुनन्दन विशेषण लगाना शुक्राचार्य के अर्थ को सही रूप में ग्रहण कराने का ही एक पौराणिक प्रयास है

          कथा में कहा गया है कि जब बलि वामन भगवान् को तीन भूमि देने का संकल्प करने को उद्धत हुए, तब शुक्राचार्य ने उन्हें रोकने की चेष्टा की परन्तु बलि के द्वारा शुक्राचार्य के आदेश का पालन किए जाने पर शुक्राचार्य ने बलि को लक्ष्मी खो देने का शाप दे दिया

          शाप शब्द अवश्य भवितव्यता(होने) और लक्ष्मी शब्द अहंकार - सम्पत्ति को इंगित करता है अहंकार की सम्पत्ति है - स्वार्थपरक राद्वेषादिपूर्ण नकारात्मक विचार, भाव, दृष्टिकोण, कर्म आदि प्रस्तुत कथन अहंकार के साथ चित्त में संग्रहीत हुए देह - संस्कार के सम्बन्ध - विच्छेद को सूचित करता है अज्ञान के कारण जब तक मनुष्य सहज रूप से देहभाव के संस्कारों से अनुप्राणित होता रहता है, तब तक अहंकार की सम्पत्ति सर्वथा सुरक्षित बनी रहती है तात्पर्य यह है कि मनुष्य में विद्यमान अहंकार(देहभाव) तथा अहंकार - सम्पत्ति(देहभाव के कारण उत्पन्न हुई स्वार्थपरता और नकारात्मकता) उसके चित्तगत संस्कारों से निष्ठ संबंध रखते हैं चित्तगत संस्कार अहंकार को अनुप्राणित भी करते हैं और चित्तगत संस्कारों से सम्बन्ध विच्छेद अहंकार तथा अहंकार - सम्पत्ति की समाप्ति का प्रमुख माध्यम भी बनते हैं

- भृगुवंशी ब्राह्मण - भृगुवंशी ब्राह्मण भी देहपरक संस्कारों को ही इंगित करते हैं बलि द्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा करने का अर्थ है - मनुष्य के (चेतन) मन में विद्यमान देहभाव का चित्त(अथवा अचेतन मन ) में विद्यमान संस्कारों के साथ प्रगाढ सम्बन्ध भृगुवंशी ब्राह्मणों द्वारा बलि को विश्वजित् यज्ञ कराना और यज्ञ से प्राप्त युद्ध सामग्री की सहायता से बलि(देहभाव) का स्वर्ग(मन) पर अधिकार कर लेना भी देहपरक संस्कारों के प्रभुत्व को ही इंगित करता है इसीलिए कथा में इन भृगुवंशी ब्राह्मणों को परम प्रभावशाली कहा गया है

- कश्यप - कश्यप शब्द कशं + = पिबति से बना है कशं का अर्थ है - प्रकाश और पिबति का अर्थ है - पान करना आत्मा (चैतन्य) आकाश रूप है अतः जो मनश्चेतना इस आत्मा रूप प्रकाश का पान करने वाली है - वह कश्यप है आत्मा रूप प्रकाश को पान करने का अर्थ है - आत्मस्थ होने की इच्छा से युक्त होना अहंकार से मुक्त होने के लिए मनुष्य चेतना का आत्मस्थ होने की इच्छा से युक्त होना अनिवार्य है इस इच्छा से युक्त होने को ही कथा में कश्यप की समाधि का टूटना और अदिति के आश्रम पर जाना कहकर इंगित किया गया है

- अदिति - अदिति मनुष्य की अखण्डित चेतना को इंगित करती है अखण्डित चेतना का अर्थ है - आत्मा और शरीर( पुरुष और प्रकृति ) के योग में स्थित होना आत्मा रूप चैतन्य जड शरीर के माध्यम से अभिव्यक्त होता है और जड शरीर आत्मा रूप चैतन्य की सत्ता से ही क्रियाशील होता है अतः आत्मा और शरीर के योग में स्थित रहना एक संतुलन है यह अखण्डित चेतना (अथवा संतुलन) ही कश्यप से संयुक्त होकर व्यक्तित्व में दिव्यता का आधान करती है, इसीलिए आदित्य देवों को अदिति का पुत्र कहकर इंगित किया गया है

- देवों का छिपना - देवों का छिप जाना व्यक्तित्व में निहित दिव्यता के छिप जाने को इंगित करता है यह दिव्यता व्यक्तित्व में अनेक रूपों में विद्यमान रहती है मनुष्य का वासनारहित(विवस्वान्) होकर स्वीकार भाव(धाता) से युक्त होना, सबका पोषण करते हुए(पूषा) मित्रभाव(मित्र) से रहना, सत्य अहिंसा अस्तेय अपरिग्रह आदि गुणों का स्वाभाविक रूप से व्यक्तित्व में विद्यमान होना( अर्यमा) तथा ैर्य, संतोष, सरलता आदि ऐसी अनेक विशेषताएं हैं जो व्यक्तित्व को दिव्य बनाती हैं परन्तु अहंकार से युक्त होने पर अर्थात् आत्मचेतना को भूलकर देहभाव में स्थित होने पर यही दिव्यता अप्रक हो जाती है

- पयोव्रत - आनन्दमय कोष की चेतना पयः कहलाती है, अतः पयोव्रत का अर्थ है - आत्म - स्मृति में स्थित होना

          तात्पर्य यह है कि मन में आत्मस्थ होने की प्रगाढ इच्छा हो, दबी पडी, दीन - हीन अखण्डित चेतना प्रकट हो जाए और आत्म - स्मृति में मनुष्य की सतत् स्थिति हो - तभी अर्थात् इन तीनों की समन्वित स्थिति में ही मनुष्य के भीतर यह दृढ विचार उत्पन्न हो पाता है कि मैं एक शुद्ध, शान्तस्वरूप आत्मा हूं और मेरे ही समान सभी आत्मस्वरूप हैं इसे ही कथा में वामन भगवान् का प्रकट होना कहकर इंगित किया गया है

- वामन - वामन शब्द वा+ मन से बना है वा एक विकल्प बोधक अव्यय है जिसका अर्थ है - या, अथवा अध्यात्म के क्षेत्र में 'मन' शब्द यद्यपि मनःशक्ति और विचार दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु वामन शब्द में मन शब्द विचार का ही वाचक है मनुष्य का मन मूल रूप से दो प्रकार के विचारों को रचता है देह चेतना में रहते हुए मन देह आधारित विचार की स्वाभाविक रूप से रचना करता है, परन्तु आत्म चेतना में रहने पर वह दूसरे प्रकार के आत्म आधारित विचारों को रचता है इस दूसरे प्रकार को इंगित करने के लिए ही वामन शब्द में मन के साथ 'वा' अव्यय का प्रयोग किया गया है अतः वामन का अर्थ है - यह विचार कि मैं आत्मा हूं और मेरे समान सभी आत्मस्वरूप हैं

          वामन का एक अर्थ है - बौना या छोटा कथा में यह वामन धीरे - धीरे विराट् रूप धारण कर लेता है 'मैं' एक आत्मा हूं और मेरे समान सभी आत्मस्वरूप हैं' - यह एक छोटा सा विचार भी क्रमशः मनुष्य के भाव, दृष्टिकोण, कर्म, आद तथा दृष्टि की सम्पूर्ण शृङ्खला में स्थित होता हुआ विराट रूप धारण कर लेता है

          कथा में वामन को एक ब्रह्मचारी का स्वरूप प्रदान किया गया है और विभिन्न शक्तियों द्वारा उन्हें विभिन्न उपहार समर्पित किए गए हैं यह चित्रण वास्तव में मनुष्य में वामन चेतना का प्राकट्य होने पर उसकी(मनुष्य की ) प्रकृति( मन, बुद्धि, इन्द्रियां आदि ) द्वारा धारण किए गए विशिष्ट स्वरूप से वामनचेतना के शोभायमान हो जाने की ओर संकेत करता है अर्थात् मनुष्य में जब वामन चेतना का प्रादुर्भाव होता है, तब उसकी सम्पूर्ण प्रकृति विशिष्ट गुणवत्ता को धारण कर लेती है

१० - वामन के तीन पद -

११- विष्णु - प्रेषित गरुड द्वारा बलि का वरुण पाश से बन्धन एवं मुक्ति - कथा में कहा गया है कि वामन भगवान् ने जब दो पदों द्वारा बलि के सम्पूर्ण साम्राज्य को माप लिया, तब विष्णु के आदेशानुसार पक्षिराज गरुड ने बलि को वरुण पाश से बांध दिया परन्तु तीसरे पद में बलि के समर्पित हो जाने पर बलि उस वरुण पाश से मुक्त हो गए इस कथन द्वारा एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत किया गया है यहां गरुड उच्च विचार अथवा संकल्प को इंगित करता है वरुण पाश से बलि को बांधने का अर्थ है - अहंकार को सुरक्षा कवच से युक्त कर देना कथन का अभिप्राय यह है कि वामन चेतना(आत्म चेतना) में स्थित होने पर मनुष्य के मन में अकस्मात् यह उच्च विचार (गरुड) भी उदित होता है कि ''वैसे तो चैतन्य के स्तर पर सभी मेरे समान आत्मस्वरूप हैं, परन्तु शरीर के स्तर पर सभी की यात्रा भिन्न - भिन्न प्रकार से चल रही है प्रत्येक मनुष्य अपनी यात्रा में चलते हुए अपने शरीर(मन - बुद्धि) के स्तर के अनुरूप ही व्यवहार कर रहा है अतः उसका कोई भी व्यवहार मेरी दृष्टि से लत हो सकता है परन्तु उसकी अपनी दृष्टि से तो वह बिल्कुल ठीक ही है '' यह उच्च विचार मनुष्य के अपने अहंकार के चारों ओर एक सुरक्षा कवच के रूप में स्थित हो जाता है जो उसे किसी भी प्रकार की स्थिति - परिस्थिति से आहत नहीं होने देता

          यहां यह स्मरणीय है कि इस सुरक्षा कवच का निर्माण उस समय होता है जब मनुष्य के भीतर अहंकार का साम्राज्य तो समाप्त हो जाता है, परन्तु अहंकार अभी विद्यमान ही होता है अहंकार के विद्यमान होते हुए भी यह सुरक्षा कवच अहंकार को आहत होने से बचा लेता है यहां यह भी स्मरण ना महत्त्वपूर्ण है कि कोई भी बाह्य स्थिति अथवा परिस्थिति उत्तेजक अथवा प्रेरक की भूमिका अवश्य निभाती है परन्तु अहंकार के विद्यमान होने तक मनुष्य स्वयं ही स्वयं को आहत करता है अतः मनुष्य के मन में विद्यमान अहंकार जब तक पूर्णतः विलित नहीं हो जाता, तब तक यही उच्च विचार रूपी सुरक्षा कवच उसकी रक्षा करता रहता है अन्त में अहंकार के विलित हो जाने पर तो इस सुरक्षा कवच की आवश्यकता ही नहीं रहती, इसीलिए कथा में कहा गया है कि वामन भगवान् ने जब तीसरा पद बलि के सिर पर दिया, तब बलि वरुण के पाश से मुक्त हो गए

१२ - बलि का सुतल लोक में निवास - कथा में कहा गया है कि वामन भगवान् ने बलि को सुतल लोक में निवास करने की आज्ञा दी सुतल(सु+तल) शब्द में सु का अर्थ है - सम्यक् और तल का अर्थ है - नीचे लोक का अर्थ है - अवलोकन अर्थात् दृष्टि इस आधार पर सुतल लोक में रहने का अर्थ हुआ - सम्यक् दृष्टि के नीचे रहना अर्थात् सम्यक् नियन्त्रण में रहना तात्पर्य यह है कि आत्म स्वरूप में अवस्थित होने पर मनुष्य जिस - जिस भूमिका में रहता है - उस - उस भूमिका का उत्तम रीति से निर्वाह करता हुआ भी उस भूमिका को अपने सम्यक् नियन्त्रण में रखता है और उस भूमिका में प्राप्त हुए सुख - दुःख को अपने शान्त - शुद्ध - प्रेमपूर्ण आत्मस्वरूप पर हावी नहीं होने देता उदाहरण के लिए मां की भूमिका में रहते हुए यदि मनुष्य भूमिका को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझ लेता है, तब सन्तान के पीडित अथवा दु:खी होने पर स्वयं भी पीडित अथवा दु:खी हो जाता है परन्तु आत्मस्वरूप में अवस्थित होने पर मनुष्य पूर्णतः शान्त और स्थिर रहकर सन्तान की पीडा से पीडित और उद्विग्न होकर सन्तान को पीडा मुक्त करने का सार्थक प्रयास करता है अतः वामन द्वारा बलि को सुतल लोक में निवास करने की आज्ञा देने का अर्थ हुआ - आत्मस्थ मनुष्य द्वारा अपनी प्रत्येक भूमिका, पद, विचार अथवा वस्तु पर अनासक्त भाव से पूर्ण नियन्त्रण ना अभिप्राय यह है कि शरीर भाव में स्थित होने पर जहां मनुष्य अपने अहंकार (भूमिका, पद, विचार, वस्तु) द्वारा नियन्त्रित रहता है, वहीं आत्मस्थ हो जाने पर अहंकार मनुष्य के नियन्त्रण में जाता है

१३- कथा में आए कतिपय अन्य प्रतीक -

I - कथा में कहा गया है कि इन्द्र द्वारा मारे जाने पर दैत्य बलि को अस्तगिरि पर ले गए और वहां शुक्राचार्य ने उनको जीवित कर दिया ( .११.४७) गिरि शब्द विज्ञानमय कोश का प्रतीक है अतः अस्तगिरि का अर्थ है - ज्ञान जहां अस्त हो गया हो अर्थात् अज्ञान की स्थिति में ही अहंकार का अस्तित्व है

II - कथा में कहा गया है कि बलि के अश्वमेध यज्ञ की यज्ञशाला नर्मदा नदी के उत्तर तट पर स्थित है नर्मदा नदी निचले स्तर का आनन्द देने वाली नदी का प्रतीक है देहचेतना में स्थित होने पर मनुष्य के भीतर अहंकार का जो यज्ञ चल रहा है, वह भी मनुष्य को इन्द्रिय सुखों में ही ले जाता है, अतीन्द्रिय सुख (bliss) में नहीं

III - बलि की पत्नी विन्ध्यावली का अवतरण बलि की अहंकाररूपता को पुष्ट करने के लिए ही है विन्ध्य का अर्थ है - बींधने योग्य अर्थात् अहंकार

IV - कथा में कहा गया है कि वामन भगवान् ने जब अपना तीसरा पद बलि के सिर पर रखा और बलि ने वामन भगवान् की स्तुति की, तब प्रह्लाद गए और उन्होंने भी भगवान् को नमस्कार किया

          प्रह्लाद शब्द आत्मा अथवा आत्मा के गुण आनन्द का वाचक है देहभाव के कारण जब तक मनुष्य अहंकार से ग्रसित रहता है, तब तक आत्मानन्द प्रकट नहीं होता परन्तु आत्मभाव के उदित होने और अहंकार के विसर्जित होने पर यह प्रह्लाद रूपी आत्मानन्द प्रकट हो जाता है

 

This page was last updated on 01/09/11.